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30 Nov 2021 · 1 min read

लड़ रहा है वह स्वयं से।

लड़ रहा है वह स्वयं से अपने अंदर हीे अंदर…
जीवन तू कैसा है? पूंछता है वह उसी से।
वह सांसों को तो ले रहा है
क्योंकि प्राण बाकी हैं अभी शरीर में।

जो कुछ भी जीवन जिया है उसने,
अभी तक वह निरर्थक सा रहा है।
अर्थी सा पड़ा है वह घर के अंदर,
जो सबकी बस जरूरत सा रहा हैं।

चिंता उसको खाये जाती है अपनी बेटियोँ की
कैसे करेगा वह हाथ इनके पीले हल्दी से…

इस बार फसल भी डूबी है,
वर्षा के पानी के अंदर।
खेतों में भी दिखतें हैं बस,
हर ओर विनाश के मंजर।

कोई माध्यम भी ना रहा अब शेष बाकी
किसको बुलाये घर पर गरीबी है काफ़ी।
कोई भी विश्वास ना करेगा उसका
वह मर रहा है अपने अंदर ही अंदर…

करजा लेकर बोए थे खेतों में बीज
तरस गयी अँखियाँ बरखा की इक बूंद को।
अंंकुर ही बस निकले थे चमकीले चमकीले
सह ना पाये वो बेचारे सूखे को।
तडप तडप के मर गए सब अपनी ही कोख के अंदर…

लोक लाज का भय है उसको
अबतो सता रहा।
किसी भी रिश्ते पर अधिकार
उसका ना रहा।
बेटी बेटे सब किसी ना किसी के प्रियतम है बने
ना जाने ये सब कब उसकी पुरखों की इज्जत ले उड़े…

लड़ रहा है वह स्वयं से अपने अंदर ही अंदर…

ताज मोहम्मद
लखनऊ

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