थक चुकी हूं मैं

थक चुकी हूं मैं
घुट-घुट के यूं जीने से,
डर-डर के बाहर निकलने से,
समाज के आरोपों से, तानों से।
लोगों की गन्दी नज़रों से
घर-दफ्तर के हैवानों से
झुठे सियासी वादों से।
थक चुकी हूं मैं।
मुझको अब खुलकर जीना है
मुझको भी उड़ान भरना है।
मुझ पर थोड़ा रहम खोओ
मुझको तुम इंसाफ दिलाओ
मुझको महफूज़ महसूस कराओ।
क्योंकि…
थक चुकी हूं मैं
डर-डर के यूं जीने से।
– श्रीयांश गुप्ता