Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
17 Oct 2021 · 1 min read

पेंसिल

—————
कागज़ कोरा था,कुंआरा।
श्वेत धवल।
पेंसिल काला था,नुकीला और काला।
उकेर गया कविता उसके अंग में।
भर गया भाव,भंगिमा और जीवन
उसके अंक में।

व्यथाओं को जीवंत किया इतना कि
छलछला आए आँसू आँखों में
संवेदना के।
खुशियों को बाँटने का संकल्प
बाँटते हुए
अपना तन घिस कर करता रहा छोटा,
कहता रहा बांटने हर चेतना से।

काष्ठ-काया से घिरा
कठोर ग्रेफ़ाइट तो हूँ पर,
लिख देता हूँ तेरे सारे कोमल गढ़न।
तेरे सारे हास,रुदन।

प्रिय है कागज हमें,
कागज को हम।
आँकना ऐ मनुष्य,
हमारी चाहत को
अपने जैसा नहीं कम।

दु:ख लिखते नोंक हो जाता है
अचंभित ढंग से भोथरा।
सहमा और खुरदुरा।
उस युवक के फिसले सपने
और
इस युवती के गहरे सपने का राज
छिपा जाता हूँ मैं।
जो मर जाते हैं बगैर जीये
उस मुर्दा अभिलाषाओं पर
कफन बिछा जाता हूँ मैं।
खुद को कोसूँ कि हँसूँ!
—————————————–

Loading...