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10 Oct 2021 · 1 min read

कोठों की कैदी

कुकुभ छंद

16-14 अंत में दो गुरु

करुण रस
शीर्षक -कोठों की कैदी

प्राणहीन सी पड़ी हुई थी , देख कर वो मुस्कुराया ।
अपने ही पौरुष पर उसको ,कितना दंभ अभी आया ।

हृदय मध्य थी गहन वेदना ,ममता आपा खोती थी
आंखें तो केवल आंखें थी, आज धरा भी रोती थी

व्यथा वेदना ओढ़ चुनरिया , यौवन भी दहक रहा था
बिकल हृदय भींचे स्पंदित तन ,घुंघरु बन बहक रहा था ।
सूखे अधरों पीर मचलती , मौन ने वो गीत गाया
अपने ही पौरुष पर उसको ,कितना दंभ अभी आया।

पड़ी थी धन राशि कितनी ही , उन रक्तिम से कदमों पर
बनी बंदिनी अब कोठों की ,खनकी पायल कसमों पर ।
भूली थी पथ प्रीत चाह में ,जाल बिछा था वादों का।
आँखों में पल रहे सपन थे ,टूटा दर्पण यादों का।
जहाँ क्षितिज तक देख रही थी ,उद्गार सभी मुर्झाया।
अपने ही पौरुष पर उसको कितना दंभ अभी आया।

पाखी

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