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29 Sep 2021 · 2 min read

विकाश का खेल

विकाश का ये खैल कैसा है..?
जिसमें हर बार देश फँसता है
कभी जातिवाद के मुद्दे पर
कभी हिन्दू-मुस्लिम में फंसता है।

ना बदले ये कभी मुद्दे
ना बदली देश की जनता
हर बार आते रहे नेता
हर बार जाते रहे नेता ।

कल भी होरी रोता था
आज होरी का पौता रोता है
बेबजह किसी कारण के
राम-रहीम हर बार जैल में होता है।

क्या हो गया है देश का देखो.?
पूछता है हरबार नेता ही तुमसे
हाल बैहाल खुद ही करता है
मांगता है जबाब तुमसे..!

ना देखो महंगाई का आलम
ना रखो खाने-पीने की चिंता
देश के विकाश पर जोर दो
टैक्स पर लुटा दो हरेक पैसा

देश बचेगा तो बचौगे तुम
नही अटैक करदेगा पाकिस्तान
राष्ट्रभावनाओं से मचलजाओ
धर्म-जाति में लड़कर दो अपना बलिदान।

ना बदली गाँव की सड़क सूरत
ना बदली स्कूल-अस्पताल की हालत
वही गड्ढे, वही मौतें,
वही अनपढ़ मजदूर-किसानी की हालत ।

कल भी रेशमा डरती थी
आज भी फूलो डरती है
भरे बाजार में उड़ती है अस्मत
पुलिस जला कर मामला राख करती है।

बड़ रही हर साल आत्महत्या
बड़ रही लूट की बारदातें
बढ़ रही बेरोजगारों की कुण्ठा
सज रही खोमचों की बारातें ।

नाम देश के विकास का ले दो
बाजार विदेशों के नाम करदो
कोई पूछे बेरोजगारी का हाल
जनसंख्या के सिर-माथे जड़ दो।

सौ-सौ की भर्ती पर
दस लाख फोरम आते है
चार सौ आईएएस बनाकर के
बेरोजगारी का भार चुकाते है ।

बन गए अफसर जो प्यारे
चांदी की चम्मच वो पाते है
सरकार का आश्रीवाद पाकर के
जनता का माँस मिलकर खाते है।

वस यही विकास हरबार होता
जनता इसी पर वोट करती है
कहीं शराब-माँस-मछली पर
तो कहीं जनता धर्म-जाति पर वोट करती है।

जनता हर रोज रोती है और हर रात सिसकती है
इसी अंधेरो में साल दर साल गुजरती है….

©®

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