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9 Sep 2021 · 1 min read

बहुत दुःखित है दुनिया दुःख कोई कम कर देता

बहुत दुःखित है दुनिया दुःख कोई कम कर देता।
इस युग के समुद्र–मंथन का विष कोई पाी लेता।

सेंक रहा है किन्तु‚ वह कैलाश के हिम में देह।
वह होता तो स्यात् दग्धता निश्चय कम कर देता।

बहुत विषम है‚ हास‚ रूदन के क्षण व इसके कारण।
दुःख और सुख के समीकरण को कम कोई कर देता।

विवश विधाता क्यों हो जाता? देख रहा है मात्र।
नर की प्रभु को चुनौती उसको सक्षम तो कर देताा।

चलो बुलायें शिव को‚ बजायें मन्दिर के घड़ियाल।
ऐसा होता तो निश्चित ही जीवन को सुगम कर देता।

मंत्रों की महिमा खंडित पर‚ वह आयें तो कैसे।
स्यात् मंत्र अभिजात्य न होता धन्य जनम कर देता।

यंत्रों पर निर्भरता बढ़ गयी‚ कम हो गयी तपस्या।
तप बढ़ता तो मानव–मन के ताप को कम कर देता।

सुख के रहस्य को खोजने कितनी मची है आपाधपी।
नैतिक मुल्यों पर टिकते‚ यह मार–काट कम कर देता।

नर ने ‘ध्वंस’ चुनौती रखकर प्रभु को ललकार लगाया।
‘ध्वंस’‚ ध्वंस करने हित‚ कोई उसको सक्षम कर देता।

जैसे पशुवत बढ़ी वृत्तियाँ वैसे युग की बढ़ी वेदना।
बुतखाने से प्रभु निकलता जीना ही सुगम कर देता।

जीवन जीना हुआ भयावह ‘भूतिया बरगद पेड़’।
मरें‚ तो बच गये‚ऐसा कहना‚ कोई खतम कर देता।

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