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7 Sep 2021 · 7 min read

समझ से परे

समझ से परे

मरने के बाद
स्वर्ग से
या फिर
नर्क से
कोई नहीं आया
वापस लौट कर
फिर
स्वर्ग का मजा
नर्क की सजा
का वर्णन
किसने किया
ग्रंथों में
समझ से परे है

-विनोद सिल्ला
2.
अवर्णित

पौराणिक कथाओं में है वर्णित
ब्रह्मा के मुख से
उत्पन्न हुआ ब्राह्मण
भुजाओं से
उत्पन्न हुआ क्षत्रिय
उदर से
उत्पन्न हुआ वैश्य
पैरों से
उत्पन्न हुआ शुद्र।

यहूदी-मुस्लिम-इसाई
या अन्य मतावलंबी
अन्य जीव-जन्तु
उत्पन्न हुए किस इंद्री से?

अवर्णित है जाने क्यों?

-विनोद सिल्ला
3.
गवाही

शंबूक ऋषि की
कटी गर्दन।
एकलव्य का
कटा अंगूठा।
टूटे हुए जीर्ण-शीर्ण
बौद्ध-स्तूप।

बुद्ध की
खंडित प्रतिमाएं
ध्वस्त नालंदा-तक्षशिला
तहस-नहस
बौद्ध साहित्य
धूमिल बौद्ध इतिहास
दे रहा गवाही।

कितना असहिष्णु
कितना भयावह
था अतीत?

-विनोद सिल्ला
4.
प्राण प्रतिष्ठा

इंसान ने बनाई
पाषाण मूर्त।
जिसमें
न ज्ञान इंद्री
न कर्म इंद्री
न संवेदीतंत्रिका
न पाचन तंत्र
न शनायु तंत्र
न कोशिकाएं
न मल-मूत्र विसर्जन तंत्र
न अस्थि-पिंजर।
फिर भी
चंद मंत्र फूंक कर
कर देते हैं उसमें
प्राण प्रतिष्ठा।
लेकिन मृत इंसान में नहीं
गजब के वैज्ञानिक हैं
भारत में।

-विनोद सिल्ला
5.
सुयोग्य को दान

झुग्गी-झोपड़ी वासी
होते हैं बदजात
होते हैं निकम्मे
होते हैं कामचोर
होते हैं अपराधी प्रवृत्ति के
आदत है इन्हें
मांगकर खाने की
नहीं देनी चाहिए
इन्हें भीख
देना चाहिए दान
सुयोग्य को।

कहना था ये
पड़ोसी के यहाँ
सत्यनारायण कथा में
कथावाचक का।

-विनोद सिल्ला

6.
तब नहीं लिया अवतार

असुर व राक्षस
थे यहीं के वासी

समय-समय पर
आते रहे भगवान
लेकर अवतार।
असुरों का
राक्षसों का
करते रहे संहार
बताते रहे उसे धर्मयुद्ध।

लेकिन यहीं पर आए
मुगल, फिरंगी, शक, हुण
डच, फ्रांसीसी, पुर्तगाली
व अन्य विदेशी आक्रमणकारी।

तब नहीं लिया
किसी ने अवतार
तब नहीं किया
धर्मयुद्ध का ऐलान।

होने दिया देश गुलाम
जाने क्यों?

-विनोद सिल्ला

7.
सूर्य के सात घोड़े

अनेक
पौराणिक कथाओं में
वर्णित है कि
सूर्य के रथ को
खींचते हैं सात घोड़े।

परन्तु सूर्य है स्थिर
करता है सिद्‍ध
विज्ञान का शोध
करती है परिक्रमा पृथ्वी
सूर्य के चारों ओर।

समझ नहीं आता
विज्ञान सही है या पुराण
अपेक्षित है
आपका मार्गदर्शन।

-विनोद सिल्ला
8.
तुम्हारा श्राप

आज तक
दंत कथाओं में
सुनते रहे।

फलां ने फलां को
दिया श्राप।
फलां ने फलां का
भुगता श्राप।

लेकिन कभी
नहीं हुआ प्रतीत
कि तुम्हारे श्राप ने
किया है भारत का
या फिर
मानवता का भला।

-विनोद सिल्ला
9.
चोर-उच्चके-उठाइगिरे

झुग्गी-झोपड़ी वाले
नहीं होते विश्वासपात्र
होते हैं ये
चोर-उच्चके-उठाइगिरे
कहना था
एक महल वाले का।

लेकिन आज तक
नहीं पड़ी
किसी झुग्गी पर
किसी झोपड़ी पर
आय कर विभाग की रेड
नहीं करते ये
कर चोरी।

नहीं भागा देश छोड़कर
कोई झुग्गी-झोपड़ी वासी
हो कर कर्जवान
बैंक का।

फिर भी जाने क्यों?
ये झुग्गी-झोपड़ी वाले
होते हैं
चोर-उच्चके-उठाइगिरे

-विनोद सिल्ला
10.
सबसे बड़ा आतंकवाद

भारत में आतंकवाद
कर चुका है
जड़ें गहरी।

जिसका पोषक है
हर घर
हर परिवार
हर व्यक्ति।

जिसका शिकार है
हर घर
हर परिवार
हर व्यक्ति।

खतरे में है
हर घर
हर परिवार
हर व्यक्ति।

गवाह हैं जातीय दंगों
भारत में
सबसे बड़ा आतंकवाद
है जातिवाद।

-विनोद सिल्ला

11.
दांतों के बीच में

मैं समाज में
रहता हूँ इस तरह
जैसे तीखे-नुकीले
दांतों के बीच में
रहती है जीभ

इन दांतों में
कुछ हैं काटने वाले
कुछ हैं फोड़ने वाले
कुछ हैं मसलने वाले
कुछ हैं दलने वाले

बना रहता है डर सदा
काटे जाने का
मसले जाने का
फोड़े जाने का
दले जाने का

बहुत मुश्किल है
दांतों के
बीच में रहना

-विनोद सिल्ला
12.
सजा में सुकून

बेकसूर होने के बावजूद
कटघरे में था मैं

गवाह थे सतपुरुष
गवाह थे दरवेश
गवाह थे एक से बढ़कर एक
अपने-बेगाने सब थे विरुद्ध

जुर्म कबूल
करने के अतिरिक्त
मेरे पास नहीं था कोई चारा
अपेक्षित था निर्णय
सख्त सजा का

सजा तो मिली
लेकिन हो गया पर्दाफाश
सतपुरुषों की सच्चाई का
दरवेशों की भलाई का
अपनों की बेवफाई का
बेगानों की कार्यवाही का

मुझे उस सजा में भी
सुकून मिला

-विनोद सिल्ला©
13.
कितने सम्यक

जानवर
नहीं रखते अपेक्षा
पत्थरों से
पत्थरों की मूर्तियों से
पिपल के पेड़ों से
जांडी के पेड़ों से
कब्रों-मजारों से

नहीं खाती बिल्ली
पत्थर या मिट्टी के
हू-ब-हू बने चूहे को

झाड़-फूंक
धागे-ताबीज
नहीं आजमाते
निरिह जानवर

कितने सम्यक हैं जानवर
मानव क्यों नहीं?

-विनोद सिल्ला
14.
आहट

सिंहासन खतरे में
हो ना हो
सिंह डरता है हर आहट से

आहट भी
प्रतीत होती है जलजला
प्रतीत होती है उसे खतरा
वह लगा देता है
ऐड़ी-चोटी का जोर
करता है हर संभव प्रयास
आहटों को रोकने का

अंदर से डरा हुआ
ताकतवर हो कर भी
डरता है बाहर की
हर आहट से

मान लेता है शत्रु
तमाम अहिंसक व शाकाहारी
निरिह जानवरों को

करता है ताउम्र मारकाट
मारता है निरिह जानवरों को
ताकि खतरे से बाहर
रहे उसका सिंहासन

-विनोद सिल्ला©
15.
तथाकथित श्रेष्ठता

मुंडेर को था घमंड
अपनी श्रेष्ठता पर

देहली पर बड़ी इतराई
बड़ी लफ्फाजी की
बड़ी तानाकशी की
अपनी उच्चता के
मनगढ़ंत दिए प्रमाण

ताउम्र उसी देहली पर
चढ़कर खड़ी रही मुंडेर
जिसको वह
कमतर व नीची
कहती न थकी

एक दिन आया जलजला
चरमरा कर ढह गई मुंडेर
आ कर गीरी
देहली के पास

छू मंत्र हो गई
तथाकथित श्रेष्ठता

-विनोद सिल्ला
16.

नहीं दिखाई देंगी

तुम्हें फटी जीन्स तो
दिखाई देती है

लेकिन तुम्हें
नहीं दिखाई देंगी
श्रमिकों की
फटी धोतियाँ-लुंगियां
महिलाओं की फटी साड़ियां
नवयुवतियों की
राजनीतिक व धार्मिक
मुसतंडों द्वारा
फाड़ी गई चुन्नियां

तुम्हें नहीं दिखाई देती
लॉकडाउन के बाद स्कूल गए
छात्र-छात्राओं की
फटी स्कूल ड्रैस
तुम्हें नहीं दिखाई देती
मध्यम वर्ग के
सुंदर कपड़ों के नीचे की
फटी बनियान
नहीं दिखती जूतों के अंदर
मुंह छिपाए फटी जुराब

आपकी दृष्टि में दोष है
या नियति में
कुछ समझ नहीं आया

-विनोद सिल्ला©
17.
अपमानित

मैं
अपमानित हूँ सदियों से
गौरवान्वित शब्द
छुपा रहा धर्मग्रन्थों के पीछे
सिंहासन के नीचे
सेठों की तिजोरी की
आड़ में

मेरा धुँधलापन
कायम रखने को
व्यवस्था ने रचे
तमाम प्रपंच

हर संभव रखा मुझे
शिक्षा से दूर
सिंहासन से दूर
संपत्ति से दूर

मैं पहाड़ों से टकराया
मैं शिखर से टकराया
मैं जमीं से टकराया

इस अपमान ने
मेरी आँखों में आँसू नहीं
आग पैदा की है
जो जलाती रहेंगी
मेरी दुर्बलताओं को
सदियों तक

– विनोद सिल्ला ©
18.
कितना अस्थिर

तुम्हारा धर्म
कितना अस्थिर है
जो डगमगा जाता है
आस-पास के
लोगों संग
खाने-पीने से
उठने-बैठने से
उन्हें छूने भर से
एक-दूसरे के यहाँ
आने-जाने से
मंगलवार को शेव करने से
शनिवार को नाखून काटने से
किसी के छींकने से
जाते हुए के पीठ पीछे से
आवाज लगाने से
दिन छिपने के बाद
झाड़ू निकालने से
बिल्ली के रास्ता काटने से

धर्म अस्थिर है तो
तुम स्थिर कहाँ होंगे

-विनोद सिल्ला
19.
कठपुतली हैं अजर अमर

बीते जमाने में
होता था खेल कठपुतली का
भले ही हो गई लुप्त
वह कला
वो खेल-तमाशे
वो तमाशगर
वो तमाशबीन

लेकिन कठपुतली हैं अजर-अमर
पहले थीं वो निर्जीव
अब हैं सजीव

कठपुतली भी सजीव
तमाशगर भी सजीव
तमाशबीन भी सजीव

अब तमाशगर
हिलाता है डोर
इलैक्ट्रिक मिडीया से
प्रिंट मिडीया से
सोशल मिडीया से
नाचने लगती हैं
दुनियाभर की कठपुतलियां

कठपुतली हैं अजर-अमर
नाचती रही हैं
नाच रही हैं
नाचती रहेंगी

-विनोद सिल्ला©
20.

मेरे सवाल

तर्क की अंगीठी पर
चिंतन की पतीली में
उबल रहे हैं कुछ सवाल

किसकी मर्जी के बगैर
नहीं हिलता पत्ता भी
प्राकृतिक आपदा
किसकी मर्जी से

बलात्कार, यौनाचार, अत्याचार
भय, भूख, भ्रष्टाचार
ऊंच-नीच, भेदभाव, छोटा-बड़ा
किसकी मर्जी से

जब-जब बढ़ा धरती पर
अत्याचार, जुल्म ओ सितम
तब-तब लिया अवतार
मेरा हुआ शोषण
मेरे संग हुआ भेदभाव
मुझ पर हुए अत्याचार
तब नहीं लिया
किसी ने अवतार

धर्म स्थल पर लिखा
“आप सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में हैं”
दानपेटी पर लटकता ताला
किसका अविश्वास

-विनोद सिल्ला©
21.
चुनावी बरसात

चुनावी बरसात में
खुश हुए मेंढक
लगे टर्राने सियासी धुन पर

इस बरसात से पहले
खाए मैंने
गर्म लू के थपेड़े
झेले मैंने
शीतलहर के नस्तर
उखाड़े मेरे पैर
भ्रष्ट हवाओं ने
डसा मुझे
जमाखोर मधुमक्खियों ने
बेइज्जत किया मुझे
बहारों के
झूठे किस्सों ने

तब तुम थे कहाँ
शायद तुम भी थे
मेरे खिलाफ

समाज सेवा की
चादर के नीचे छुपाई है तूने
दागदार खादी
बहुत दे चुके हो
मेरी नजरों को धोखा

बस बहुत हुआ
अब और नहीं

-विनोद सिल्ला©
22.

हाफ पैंट

हाफ पैंट
थोड़ी सी फटी पेंट से
करती है सवाल

करती है दोषारोपण
सांस्कृतिक प्रदूषण
फैलाने का

लगाती है लांछन
बिना रुके
बिना थके
अनाप-शनाप

करती है कुतर्क
बजाती गाल
बहाती है घड़याली आंसू

हाफ पैंट ने
नहीं दिया अपना परिचय
कब कैसे हुआ आगमन
यूरोप से

बेवजह खटकती है इसे
थोड़ी सी फटी पैंट

-विनोद सिल्ला©
23.
नायक पूजा

मैं शोषित
मेरी लड़ाई शोषक से

जिनकी फिल्में
देख-देख कर बड़ा हुआ
वो नायक-नायिका
मेरे विरुद्ध खड़े हुए तो
प्रतीत हुए खलनायक

जिसके सुरीले गीत
सुन सुन कर मैं मुग्ध हुआ
वो गायक-गायिका
अलापने लगे राग
मेरे विरुद्ध
उनके राग बेसुरे लगे

जिन्हें मैं मानता रहा
खेल जगत की शान
मेरे विरुद्ध होकर
मेरा खेल बिगाड़ते
उनको पाया

लेखक भी कुछ
बांचते रहे स्तुति
नाचते रहे निर्लजता से
दरबारी धुन पर
हिलाते रहे पूंछ
सरकारी खिताबों के लिए

घाटे का सौदा
साबित हुई नायक पूजा

-विनोद सिल्ला©
24.
पहले पल को निगल गया

उम्मीद की
हरी डाल पर
पींग डाल कर
झूला मन का मयूर
नाचने को आतुर
मन बाग-बाग
दिल राग-राग
बरस रही फुहार
दिल गाए मल्हार
अचानक टूटा झूला
गिर पींग से उतरा कूला
फिजां हुई खिजां
ये कैसी सजा
पल में सब कुछ
बदल गया
यह पल
पहले पल को
निगल गया

-विनोद सिल्ला
25.
एक ही शहर में

जम कर बरसा पानी
बरसात की फुहार
महल को भायी
झुग्गी को रास न आयी

महल में
मालिक-मालकिन-बच्चे
व नौकर खूब नहाए
कागज की नाव
चली भर के चाव
लगे ठहाके
लगी किलकारियां
बने गर्मागर्म पकवान

झुग्गी में पसरा मातम
पूरा परिवार
झुग्गी से बाहर
कोई पानी निकाले
कोई छत ठीक करे
रात का भोजन
सबसे बड़ी समस्या

एक ही शहर में
दो प्रकार के शहरी
सरकार की
नाक के नीचे

-विनोद सिल्ला

26.
मूकदर्शक

मेरी खून पसीने की
गाढ़ी कमाई

आयकर में
बिक्री कर में
खरीद कर में
टोल नाका कर में
व अन्य कर में
बटोरी सरकार ने

बटोरी धन-माया को
दे देते हैं निजाम
अपने चहेते
ओद्योगपतियों को
कर्ज के रूप में
जो नचाते हैं अर्थव्यवस्था को
अपनी ऊंगली पर
करता है ता था थैया
वितमंत्रालय
मूकदर्शक हैं सब अदारे

-विनोद सिल्ला©
27.

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