अन्तिम बेला
चल दिया अन्तिम बेला तट के यहाँ
महफिल भी जल उठी पन्नग व्याल में
अधम लहू दृग धो रही चिरते – चिरते चिर को
अवपात मै , चाल भी मेरी है कच्छप के…
कारुण्य दामिनी प्रवात के रश्मि आँगन में नहीं
खोजता नभ पे वों भी मद में पड़ा
क्षितिज प्राची से लौटी खग से जाकर पूछो
क्या उसे भी मिली नव्य कलित नयन राग ?
उपवन भी नतशिर करती सरहद हुँकारों के
किन्तु मजहब खुद में कौन्धती अपनी क्रान्ति से
इन्धुर भी कहाँ जाती , कबसे इस ओक या उस ओक
क्या केतु भी चला औरों के ऊर्ध्वङ्ग शान – सौगन्ध के ?
किञ्चित प्रत्यञ्चा चढ़ा दो स्वयंवर सीता के
परशुराम ताण्डव प्रचण्ड निर्मल कर दे संसार
अविरत नहीं यदा – कदा भी नहीं आती विभाकर अनीक
यह द्युति भी छिपा प्रसून क्लेश प्रखर के
किङ्कर , अज्ञ , वामा आनन दोज़ख के
अभिशप्त है कौतुक – सी म्यान में कृपण नहीं
त्रास में सतत पला सिन्धु भी निर्मल नहीं जिसके
कुम्भीपाक में मै भी समाँ निर्झर – सी धार