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16 Jul 2021 · 1 min read

वसन्त

महकने लगे दिग-दिगन्त, शायद वसन्त आ गया
भाव उठे मन में अनन्त, शायद वसन्त आ गया

चुपके से बादल का घूंघट उठा कर
अधखिली कली जैसी चाँदनी को पा कर
छेड़ रहा चाँद शीलवन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे………

मानस के द्वार खुले मादक मधु-चोट से
कविता के आंगन में छन्दों की ओट से
झाँकते निराला और पन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे………

हल्दी और चन्दन के रंग खूब साजे
शहनाई गूँजी, वेदी पर विराजे
घर-घर गौरी व एकदन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे………

सौंपा है विधि ने किस भाग्यवान लेखे
बार-बार कनखी से रूप-कलश देखे
हार रहा मन का यह सन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे……….

सरसों के फूलों की चादर बिछाये
धरती ने गगन संग सपने सजाये
विरह-दुःख ‘असीम’ हुए अन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे……….
©️ शैलेन्द्र ‘असीम’

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