Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
4 Jul 2021 · 1 min read

मत मारो मां कोख में मुझको

कविता
=========
मत मारो मां कोख में मुझ को
=========
बेटी होकर खुद बेटी का, जीवन छीन रही हो मां
मर्दों पर इल्जाम लगे क्यूं, तुम ही हीन रही हो मां

ऐसा क्या गुनाह मेरा जो, गर्भ में ही मारो मुझको
क्या होता जो नाना-नानी, गर्भ में मार देते तुझको

तुम लाडो, गुड़िया रानी से, बहु रानी तक बन बैठी
फिर मेरे ही आने से ,तुम क्यों हो रुठी- रुठी

तुमने क्यूं सोचा नहीं, एक बार भाई की राखी का
क्यूं संहार करने पै अड़ी हो, अपने घर की पाखी का

अब तो तुम गुलाम नहीं हो ,किसी मर्द के बंधन में
क्या मेरा अधिकार नहीं कुछ, मां तेरे इस आंगन में

मैं आकर मां तेरे घर को, तुलसी आंगन सा महकाऊंगी
तेरे घर के आंगन में मां ,मैं भी गीत खुशी के गाऊंगी

मेरे हक में तुम नहीं तो, और लड़ाई लड़ेगा कौन ?
मेरे खातिर आखिर मां, तुम बैठी हो क्यूं इतना मौन ?

मैं भी तेरे घर में मां, डोली में बैठना चाहूं हूं
मैं भी पापा के सीने लग, थोड़ा सा रोना चाहूं हूं

मत मारो मां कोख में मुझको, मैं तेरा ही रूप हूं
तेरे घर की छाया हूं मैं, तेरे घर की धूप हूं।।
======
मूल रचनाकार …….
जनकवि बेखौफ शायर
डॉ. नरेश कुमार “सागर”
दैनिक प्रभारी
इंटरनेशनल साहित्य अवार्ड से सम्मानित
9149 08 7291

Loading...