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29 May 2021 · 1 min read

राजनीति की बरसात

रो रहे हैं पेड़
लकड़ी न बन जाए चिताओं की
डर रहे हैं फूल
बिखेर न जाएं मुर्दों पर
धागे कर रहें है प्रलाप
गिर ना जाएं कफ़न बनकर लाशों पर
पत्थर हो गया है दिल
उठा कर राख मासूमों की
और हँस रहे हैं आंकड़े
बनाकर हवा राजनीति की ।

कालिख जम गई है आसमाँ में
चिताओं के धुएं की
फ़ीकी पड़ गयी है प्रभा सूरज की
जलती लाशों की आग से
सीने में गड्ढे हो गए हैं धरा के
दफ़न कर कर के लाशों को
नदियाँ हो गयी जहर
गला कर संक्रमित लाशों को
त्रस्त है भारत
बेहोश है सत्ता
आंकड़ों के खेल में फंस चुकी जनता ।

हर कोई इंसान अब नम्बर बन गया
रिश्तों का दर्द आंकड़ों में छिप गया
आँसूयों से भीगी आंखें
अभी सूख भी नही पाई
टूटी चूड़ियों की आवाज़
अभी खो भी नही पाई
दफ़न हुई लाशें अभी गल भी नही पाई
फाइलों में खामोश हो रही चीखें
सत्ता की चौसर बिछ गई है
मोहरों का खेल हो गया शुरू
चढ़ आयी बरसात राजनीति की
धो रही है आंकड़े सब अनीति की ।

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