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17 May 2021 · 1 min read

कविता - 'बरसात'/रुबाइयाँ

‘बरसात’/रुबाइयाँ

रिमझिम-रिमझिम सावन बरसे,
मौसम हुआ सुहाना है।
शीतल महका पवन चले है,
दिल करता दीवाना है।
बादल गरजें बिजली चमके,
धक-धक दिल में होती है;
आओ भीगें इस मौसम में,
चाहत का नज़राना है।

धुली खिली अभिनव रुत पावन,
मन करती मस्ताना है।
बूँद नहीं ये मोती बरसें,
लूटे धरा खज़ाना है।
नदियाँ सागर भरे-भरे हैं,
झूमें तरु भी मस्ती में;
ताल-तलैया लहरें दौड़ें,
प्रेम भरा अफ़साना है।

आकुल धरती गगन निहारे,
गाती विरही गाना है।
मचल उठें नभ का मन आतुर,
बुनता ताना-बाना है।
पीर-नीर की बारिश नभ की,
भाव ख़ुशी के दे जाती;
दूर सही पर प्रीत निभाए,
समझे अगर ज़माना है।

दूर प्रदूषण बरसात करे,
धरा हृदय हर्षाना है।
सौंधी मिट्टी से प्रेम जता,
हरियाली भर जाना है।
चातक की ये प्यास बुझाए,
व्रत विश्वास बढ़ाने को;
नव आशाएँ सबको देती,
तन मन हमें भिगाना है।

बरसात नयी शुरुआत कहे,
रीत अतीत भुलाना है।
परिवर्तन प्रकृति नियम जग में,
सुख-दुख का पैमाना है।
रूप बदलते पलपल रहते,
मन गुमान क्यों करता है;
कृष्ण-शुक्ल पक्षों का ‘प्रीतम’,
रहता आना-जाना है।

#आर.एस.’प्रीतम’
सर्वाधिकार सुरक्षित रुबाइयाँ

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