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22 Nov 2020 · 1 min read

इक मोहब्बत की वो ज़न्जीर बना ली जाए

इक मोहब्बत की वो ज़न्जीर बना ली जाए
जिससे फिर बाँध के नफ़रत भी ये डाली जाए

दर पे मौला के कोई जब भी सवाली जाए
लौटकर है न ये मुमकिन कि वो ख़ाली जाए

जब अदावत या बग़ावत न हुई उल्फ़त में
आबरू क्यूँ न मोहब्बत की बचा ली जाए

आप नज़दीक किसी वक़्त हमारे आओ
इक दफ़अ रस्मे मोहब्बत भी निभा ली जाए

आपके बिन है अँधेरा सा हमारे दिल में
क्यूँ न यादों से कोई शम्अ जला ली जाए

कोई समझा ही नहीं प्यार को दुनिया में कभी
ग़म भले दिल में हंसी लब पे सजा ली जाए

काम ‘आनन्द’ सँवरते हैं इसी आदत से
आज की बात कभी कल पे न टाली जाए

~ डॉ आनन्द किशोर

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