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19 Oct 2020 · 1 min read

होंठ छिलते हैं मुस्कुराऊँ क्या

उसकी नादानियाँ बताऊँ क्या
होंठ छिलते हैं मुस्कुराऊँ क्या

दोस्ती उसकी आज़माऊँ क्या
वक़्ते-मुश्क़िल उसे बुलाऊँ क्या

फिर उजाड़ा है आंधियों ने चमन
हाले-गुल ख़ार को बताऊँ क्या

खुल गया भेद भी छिपाने में
और आगे भला छिपाऊँ क्या

रोज़ करता फ़रेब साथ मिरे
हर दफ़अ मैं ही चोट खाऊँ क्या

जब नहीं है वो भी मिरे माफ़िक
उसकी ख़ातिर बदल मैं जाऊँ क्या

वो भी बैठा है कुछ सुनाने को
अपना किस्सा उसे सुनाऊँ क्या

जब न ‘आनन्द’ को बुलाया है
उसके घर फिर चला भी जाऊँ क्या

– डॉ आनन्द किशोर

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