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16 Oct 2020 · 1 min read

भटके हुओं को राह पे लाने लगा हूँ अब

भटके हुओं को राह पे लाने लगा हूँ अब
पत्थर भी रास्तों के हटाने लगा हूँ अब

अपने सफ़र का हाल सुनाने लगा हूँ अब
दुश्मन मिले कि दोस्त निभाने लगा हूँ अब

जब से सफ़र में साथ तेरा मिल गया मुझे
आँखों में तेरे ख़्वाब सजाने लगा हूँ अब

आती है याद उसकी अकेले में इस क़दर
तन्हाइयों में अश्क़ बहाने लगा हूँ अब

चेहरे पे जिसने अपने मुखौटा लगा लिया
चेहरे से ये नक़ाब हटाने लगा हूँ अब

आदत रही है जिनकी सदा झूठ बोलना
ऐसों को आइना भी दिखाने लगा हूँ अब

लोगों का दर्द बांट के आधा तो कर सकूँ
इस वास्ते मैं सबको हंसाने लगा हूँ अब

गुलशन में प्यार-प्यार ही बाक़ी बचा रहे
नफ़रत सभी दिलों से मिटाने लगा हूँ अब

लड़ने में वक़्त खामखां ज़ाया भी क्यूँ करूँ
‘आनन्द’ रूठता है मनाने लगा हूँ अब

– डॉ आनन्द किशोर

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