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15 Oct 2020 · 1 min read

अना के खेल में सबको मैं मुब्तिला देखूँ

फ़रेबो-झूट का व्यापार मैं नया देखूँ
अना के खेल में सबको मैं मुब्तिला देखूँ

नहीं ख़बर थी मोहब्बत में ये कभी होगा
जो लुट गया है वफ़ा का वो क़ाफ़िला देखूँ

पिघल रहा है वो हर बार सच की गर्मी से
जो मोम से है बना क्यूँ वो आइना देखूँ

सराब एक से बढ़कर हैं एक सहरा में
भटक रहा हूँ मैं सहरा में रहनुमा देखूँ

तरह-तरह के हैं इन्सान इस ज़माने में
मिजाज़ सबका नहीं एक सा भला देखूँ

क़दम बढ़े हैं मेरे कामयाबियों की तरफ़
मिले मुझे भी मुक़द्दर का आसरा देखूँ

जला है सामने आँधी के इक अकेला वो
तमाम रात मैं दीपक का हौसला देखूँ

इसी की आस है ‘आनन्द’ को अदालत से
सही ग़रीब के हक़ में ये फ़ैसला देखूँ

शब्दार्थ:- सराब=भ्रमजाल/मृगतृष्णा

– डॉ आनन्द किशोर

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