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12 Oct 2020 · 1 min read

चिंता

अब किताबों से दोस्ती, मुझे अच्छी नहीं लगती //
सोशल मीडिया मे मस्ती, मुझे अच्छी नहीं लगती //

एक अजीब-सा भय, मुझे सताने लगा हैँ //
मानो, चिंताओं का समा, मुझे खाने लगा हैँ //

परकटा, एक नादान-सा, परिंदा हो गया हु //
समय की नित नवीन परीक्षा से, शर्मिंदा हो गया हु //

अकेलापन सा वक़्त, मुझे यू झिंझोड़ रहा हैँ //
मानो अंदर ही अंदर, मुझे मरोड़ रहा हैँ //

अब जीने की आशा का, ह्रास हो रहा हैँ //
मानो मृत्यु की शैय्या का, शिलान्यास हो रहा हैँ //

जीवन मे मात्र दो कदम चलके, लड़खड़ा कर गिर गया हु //
हर उम्मीद को मरता देख, भय से कम्पित हो गया हु //

~: कविराज श्रेयस सारीवान

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