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5 Oct 2020 · 1 min read

कभी गर वक़्त के घेरे में किस्मत हो गयी तो फिर

कभी गर वक़्त के घेरे में किस्मत हो गयी तो फिर
बुलन्दी की ज़वालों से ही हुज्जत हो गयी तो फिर

अभी आँखों के रस्ते से सनम दिल में समाते हो
कहीं तुमको भी गर हमसे मुहब्बत हो गयी तो फिर

अभी हम मुंतज़िर बैठे चले आओ भी मिलने को
तुम्हारे आने से पहले क़यामत हो गयी तो फिर

अभी गुस्से में लगते हो अभी तो जा रहे हैं हम
करोगे बाद में तुम क्या नदामत हो गयी तो फिर

अभी तेजी से से जाते हो चले जाओ मगर सोचो
मेरी आगे सफ़र में ही ज़रूरत हो गयी तो फिर

कहा तो है अभी तुमने कहो कुछ भी अभी मुझसे
मगर बातों से मेरी गर शिकायत हो गयी तो फिर

मकानों के लिये सारे शजर ही काट डाले हैं
अगर नाराज़ हम सबसे ये कुदरत हो गयी तो फिर

शरारत हो सदा छोटी नहीं करना बड़ी हरगिज़
कभी गर जान पर भारी शरारत हो गयी तो फिर

ग़लत सा ख़्वाब देखा है अभी भी ज़ह्’न है भारी
अभी ‘आनन्द’ सोचे है हक़ीक़त हो गयी तो फिर

– डॉ आनन्द किशोर

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