Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
11 Sep 2020 · 4 min read

ॐ गंगा तरंगे

उस समय सावन मास के कृष्ण पक्ष की रात्रि के तीसरे पहर त्रियामा काल में करीब 2:30 बजे मैं बनारस के हरिश्चन्द्र घाट पर खड़ा था । उन दिनों पिछले एक सप्ताह से लगातार मूसलाधार बारिश होने के कारण और खबरों की माने तो गंगा जी का जल स्तर खतरे के निशान के करीब बह रहा था । गंगाजल का स्तर घाट की सभी सीढ़ियां चढ़ कर सड़क तक आ पहुंचा था। शायद बारिश तूफान को देखते हुए आस पास की बिजली काट दी गई थी अतः पूरा इलाका घुप्प अंधेरे में डूब हुआ था और काली काली अंधियारी सी रात और भी काली हो रही थी । ।मैं सड़क पर अपनी मोटरसाइकिल खड़ी कर बाईं ओर एक आड़ी दीवार के सहारे किसी चौड़ी मुंडेर पर कुछ दूर चलने के पश्चात एक सफ़ेद संगमरमर से बने शिवालय के सामने खड़ा था । सामने परम् पावनी त्रिभुवन तारिणी गंगा जी का विराट विस्मयकारी स्वरूप का विहंगम दृश्य मेरे लगभग चारों ओर फैला था । द्रुतगामी गंगा जी का ज़ोर ज़ोर से हिलोरें लेता महाजलराषि का एक सागर सा मेरे सामने बहुत शोर मचाते हुए बहुत ही तेज़ गति से बहता जा रहा था जिसके एक छोर पर मैं खड़ा था तथा दूसरे छोर का सिरा अपार था , दूर दूर जहां तक नज़र जाती थी दिखाई नहीं पड़ रहा था । वहां के वातावरण में मांस भुनने की तंदूरी चिकन के ढाबे से उढती जैसी गन्ध फैली हुई थी । वह स्थान अनादि काल से वहां था और कालू डोम द्वारा राजा हरिश्चंद्र को खरीदने के कारण इस श्मषान का नाम हरिश्चंद्र घाट पड़ा था । कुछ दूरी पर एक धधकती हुई और एक मन्द होती चिता की ज्वाला का प्रकाश उन कल्लोल करती उछल उछलकर बहती लहरों पर पड़ने से बीच बीच मे उनकी गति परिलक्षित हो रही थी और यदि थोड़ी देर भी नज़र उस प्रकाश से चमकतीं उन लहरों पर टिक जाती तो सापेक्ष गति के अनुसार ऐसा प्रतीत होता था कि मानो मैं जिस जगह खड़ा हूं वह तीव्रता से चलती जा रही है और आस पास का परिदृश्य स्थिर है । मैंने फिर सिर झटक कर अपने को स्थिर किया और आंखें गड़ा कर देखने पर सामने सफ़ेद संगमरमर से निर्मित एक छोटा सा शिवाला था जिसमें एक दीपक जल रहा था जिसके मद्धिम प्रकाश में मध्य मेंं शिवलिंग और चारों ओर स्थापित आलों में देवी देवताओं की मूर्तियां विराजमान थीं । उसके अंदर एक छोटा सा प्रवेश द्वार था जिसके बाईं ओर फर्श पर आसन जमाये पालथी मारे डोम राजा बैठे थे । उनके सामने एक अखबार के कागज़ पर कुछ बेसन से बने नमकीन वाले सेव और पास में शुद्ध देसी शराब की आधी खाली बोतल और कांच का गिलास रखा था । इससे पहले मेरी नज़र उन पर पड़ती उनकी गरजती आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और रात्रि के उस मध्यम प्रकाश में चमकती अपनी लाल लाल बड़ी आंखों और तमतमाती भाव भंगिमा से मुझे सम्बोधित करते हुए कहा
‘ आइये डॉक्टर साहब आइये ‘
और अपने करीब से एक छोटा सा आसन उठाते हुए मुझे उस पर बैठने का इशारा करते हुए कहा
‘ आप तो विलायती पीते हों गें ‘
और फिर अपने किसी साथी की ओर मुंह करते हुए चिल्ला कर आवाज़ लगाई
‘ लाओ , ले लाओ डॉक्टर साहब के लिये विलायती बोतल और काजू वाजू ‘
उस स्थल पर वो नशे में धुत्त , संज्ञा शून्य , बेसुध , यंत्रवत समाज के प्रति अपनी एक पवित्र जुम्मेदारी को निभाने में लिप्त था । ऐसे वैराग्य पूर्ण स्थल पर उसकी यह मनःस्थिति मुझे उसके इस दुश्कर कार्य में सहायक सिद्ध होती लगी । मुझे लगा कि वहां पर उन लहरों से उतपन्न शोर के स्तर के ऊपर केवल उसकी ही आवाज़ सुनी जा सकती थी क्यों कि जब मैंने उन लहरों के शोर से ऊंची अपनी आवाज़ में चिल्लाने का प्रयास कर उससे अपने आने का प्रयोजन बताने का प्रयास किया तो मेरी आवाज़ आस पास घुमड़ती लहरों के शोर में डूब कर रह गयी और मुझे ही नहीं सुनाई दी ।
सम्भवतः मेरे वहां पहुचने से पूर्व ही मेरा परिचय और प्रयोजन उन तक पहुंच गया था । मैं उन दिनों अपनी प्रथम नियुक्ति पर वहां के एक पुलिस अस्पताल में तैनात था तथा मेरे अस्पताल में कार्यरत अपनी सहयोगिनी केरल निवासिनी सिस्टर ( staf nurse ) के अनुरोध पर जिनकी माता श्री अपनी उम्र के तिरानबे वसन्त और और एक लंम्बी बीमारी भोगने के पश्चात सांसारिक कष्टों से मुक्ति पा कर सद्गति को प्राप्त हो गईं थीं की अंत्येष्टि में किसी कारण हो रहे विलम्ब को शीघ्रता प्रदान करवाने के लिए उनसे निवेदन करना चाह ही रहा था कि उन डोम राजा जी ने मेरी मनोदशा को भांपते हुए ऊपर किसी छत से गिराए जा रहे लकड़ी के कुंदों को मुझे दर्शाते हुए कहा
‘ आप ही का काम चल रहा है , लगातार बारिश, गीले में जरा सी जगह बची है , मैं जानता हूं ये लोग काफी देर से इंतजार कर रहे हैं पर क्या करें इस बरसात ने परेशान कर रखा है साहब ‘
फिर अपने सहयोगियों पर दहाड़ते हुए कहा
‘ लगाओ जल्दी जल्दी , डॉक्टर साहब का काम सबसे पहले होना चाहिए ‘
इतना कह कर वो पुनः वहीं पर मेरी खातिर करने के लिए विलायती शराब की गुहार लगाने लगे । अपने वहां जाने के उद्देश्य पर कार्यवाही होते देख मैंने वहां स्थित आराध्य और गंगा जी को नमन करते हुए उनके गण स्वरूप लगते उन डोम राजा जी का आग्रह ठुकराते हुए तथा उनको कृतज्ञता से अपना आभार प्रदर्शित कर वहां की अलौकिक अनुभूति अपने मन में समाये वापिस मुड़ गया ।

Loading...