Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
14 Aug 2020 · 1 min read

संभावना

बड़ी देर तक करवट बदलती रही
बिस्तरे के चौबारे में मेरी देह
और मन था कि तुम्हारे आंगन में
खिल उठा था रात रानी की तरह
यक ब यक एक शोर हुई
मैंने पलट कर देखा
चाॅंद छुप गया था
सुनहरी चादर की ओट में
सुबह झांकने लगा था
खिड़की से
रौशनी खेल रही थी
स्याह, मलीन सी मेरे कमरे के
हर एक कोने में, दीवारों पे
मेरे पूरे बदन पे
मेरे चेहरे मेरे एनक पे
जागी जागी रात को
जागी आंखों के ख़वाब को
जगा रहा था कोई … वो अलार्म था
घड़ी में लगा अलार्म
अलार्म जिसे सोने से पहले
जागने के लिए लगाया जाता है
जागे हुओं के लिए …
शोर से कम कुछ नहीं समझा जाता
मैंने एक हाथ से शोर को बन्द किया
दूसरे से किताब उठाई
जिसे पढ़ते हुए मैं
तुम्हारे करीब चली गई थी
पहला शब्द धुंधले आंखों से जो दिखा
वो था “संभावना”
कितनी सारी संभावना छुपी है न इस एक शब्द में
संभावना की मैं भगत को पूरा पढ़ पाऊं
संभावना कि मैं पढ़ने वाली हर एक चीज को पढ़ पाऊं
संभावना कि मैं पढ़ कर उस पे अमल कर पाऊं
संभावना की तुम्हारी पीठ की चादर पे
औंधे लेट कर भगत की बाते कर पाऊं
“संभावना” संभावनाओं से भरा शब्द …
~ सिद्धार्थ

Loading...