देश को तोड़ने का काम कर रही है - दरबारी पत्रकारिता
युगप्रवर्तक पत्रिका में प्रकाशित करने के लिए लिखें हैं। मैं आपके स्वस्थ आलोचना का आभारी हूँ।
देश को तोड़ने का काम कर रहे हैं – दरबारी पत्रकार
महाभारत काल से ही पत्रकारिता चली आ रही है। जहाँ संजय ने कुरुक्षेत्र में घटित धर्मयुद्ध को अपनी वरदानी आँखों से देख कर राजा धृतराष्ट्र को बताया था।वहीं आधुनिक काल में इसकी शुरुआत उदन्त मार्तंड नामक साप्ताहिक पत्रिका 30 मई 1826 को जुगलकिशोर शुक्ल जी ने की।शुक्ल जी का मुख्य उद्देश्य था सच बोलना, उसूलों पर चलना,भारत को सुदृढ़ बनाना।उन्होंने कभी भी पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं बनने दिया बल्कि इस काम को नैतिक जिम्मेदारी और मूल कर्तव्य मानकर किया।1826 से लेकर 2020 तक पत्रकारिता में जमीन – आसमान का अंतर आया है।पहले के पत्रकार अंग्रेजों से न डरते थे और नाहीं उनकी चापलूसी करते थे।मगर पिछले कुछ दशकों से पत्रकारिता को धर्म नहीं केवल एक धंधा बना दिया गया है, या यूँ कहें कि जिस तरह आदिकाल में दरबारी कवि हुआ करते थे उसी प्रकार अभी दरबारी पत्रकार हैं, जिन्हें सिर्फ झूठ बोलना,पूंजीवाद का प्रचार करना,राजनीतिक दलों का समर्थन करना,हिन्दू-मुसलमान करना, जनता के मूल – मुद्दों को छोड़कर सिर्फ देश – विरोधी नीति का प्रचार करना,धर्म का प्रचार करना,चीन-पाकिस्तान करना,देश को तोड़ने एवं डराने का काम करना है क्योंकि जो पत्रकार हैं,वे ख़ुद को एक सेलिब्रिटी मानते हैं।तमाम पार्टियों के बड़े – बड़े नेताओं के साथ फ़ोटो खिंचवाना,दरबारी पत्रकारिता करना और हवादार कमरे में बैठ कर झूठा खबर देना, मानो वे खबर नहीं पूंजीपतियों और नेताओं के फायदे में अपना फैसला सुना रहें हैं। शायद इन जैसे पत्रकारों की वजह से ही दुनियाभर में भारतीय पत्रकारिता का स्थान 136 वें स्थान पर है। चाहे अख़बार हो या टेलीविजन दोनों माध्यमों से सिर्फ देश में अस्थिरता फैलाने की कोशिश की जा रही है। अस्सी के दशक से पहले ऐसे पत्रकार या नेता हुआ करते थे जो सच की मिशाल थे,जो कभी झूठ नहीं बोलते थे न ही उनके चरित्र पर कोई दाग था मानो राजा हरिश्चंद्र उस समय अवतरीत हुए हों।वैसे ही सफेद और सच्चे लोग पत्रकारिता और नेता चुने जाते थे।परंतु वर्तमान में ऐसा नहीं है,जो व्यक्ति जितना ज्यादा झूठ बोलने वाला,चापलूसी करने वाला,जितना बड़ा अपराधी होता है वे लोग पत्रकारिता में और नेता बन आम जनता का खून चूसते हैं। अपने टेलेविज़न स्टूडियो में बैठ कर अलग – अलग धर्मों के लोगों को बुलाकर आपस में झूठ – सच का लड़वाते हैं। और यही लड़ाई देख पूरा देश आपस में लड़ता है,कभी – कभी तो कई मासुमों की जानें भी चली जाती हैं इस चक्कर में।
ये पत्रकार टेलीविजन के सफेद चमड़ी के लोग केवल समाज में जहर घोलने का काम करते हैं। इनके नॉन स्टॉप खबरों से कई घरों में प्रतिदिन आपसी लड़ाई और मतभेद हो जाते हैं।पूरा दिन केवल एक व्यक्ति का ही गुण – गान करते रहते हैं। ये कभी भी रोटी,कपड़ा,मकान,
रोजगार ,स्वास्थ्य और शिक्षा पर बात नहीं करती,केवल नेताओं का गुण – गान और विपक्षी दलों की बुराई करने में लगे रहते हैं।दरसल ये इस प्रकार का एक एजेंडा तैयार कर रहे हैं ताकि देश में आने वाले कुछ सालों में लोकतंत्र बचे ही ना, फिर से राजतंत्र कायम करने का मानो ठेका ले रखा हो।और इस काम को पूरा करने के लिए वे दिन – रात लगे हुए हैं। कुछ दशक पहले पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता था पर अब ये लोकतंत्र तोड़ने का कटार बन गया है। या यूँ कहें कि जितने नेताओं ने इसे कुछ वर्षों में बर्बाद नहीं किया होगा उतने इन दरबारी पत्रकारों ने बर्बाद किया है।
जहाँ पत्रकारिता जैसे महान कार्य को दरबारी पत्रकार बदनाम कर रहा है वहीं पत्रकारिता के आदर्श गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने इस महान काम के लिए अपनी जान तक दे दी। विद्यार्थी जी का जन्म 26 अक्टूबर 1890ई. को इलाहाबाद के एक सामान्य परिवार में हुआ।वे बचपन से ही हिम्मतवाले और निडर स्वभाव के थे। महज 17 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ रेलवे में सुविधा न देने के कारण आंदोलन छेड़ा।जब उनकी बात नहीं मानी गयी तो वे पटरी पर लेट गए।अंततः उनके जनता के प्रति समर्पण भाव को ही सफलता मिली।वहीं से उन्होंने हर गलत कार्य का विरोध करना प्रारंभ किया।उन्होंने ताउम्र लोगों को धार्मिक उन्माद में न फसने की अपील की। विद्यार्थी जी के मन में देशभक्ति होने के कारण ही उन्होंने पत्रकारिता में ही कलम के सिपाही बनने के जैसे काम को चुना और पूरी निष्ठा से इसमें रम गए। इस दौरान क्रांतिकारी और स्वराज जैसे अखबारों में लेख लिखा करते थे।उनकी लिखी हुई बातों को कोई झुठला नहीं सकता था।वे सिर्फ सच और सच लिखते थे। उनके सच लिखने के कारण उन्हें कई बार जुर्माना भरना और जेल भी जाना पड़ा। जान से मारने की धमकी भी मिली पर वे अपने काम पर अटल रहें।न डरे न हटे सिर्फ लड़े। उनके सभी लेख विद्यार्थी नाम से छपते थे। अपने काम की वजह से उस समय पुरोधा कहे जाने वाले पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी जी से मिले सरस्वती पत्रिका में भी काम किया। विद्यार्थी जी ने 9 नवंबर 1913ई.को प्रताप पत्रिका की नींव रखी। फिर मानो भारत में पत्रकारिता के क्षेत्र में एक आंदोलन सा आ गया।उस समय से ही उन्होंने नए युवाओं को प्रशिक्षण देना आरंभ किया। विद्यार्थी जी ने किसान,मजदूर,नारी उत्पीड़न, बाल शोषण आदि मुद्दों पर लिखकर उन्होंने सभी पीड़ित वर्गों को समान न्याय दिलाया। देश जहाँ एक तरफ गुलामी तो एक तरफ़ धार्मिक उन्माद को झेल रहा था।यदि कहीं भी दो गुटों या लोगों के बीच लड़ाई होती तो उनका बीच – बचाव करना अति आवश्यक जान पड़ता,क्योंकि वे इस काम में माहिर थे। मार्च 1931के कानपुर साम्प्रदायिक हिंसे में भी वे वहाँ सबसे पहले पहुँचे और हिंसा को रोकने का प्रयत्न किया।कहा जाता है कि यदि वे वहाँ समय पर नहीं पहुँचे होते तो शवों की गिनती शायद लाखों में होती।किन्तु उस दंगे को रोकने के लिए उन्होंने खुद को दंगे के हवाले कर दिया और उनकी हत्या कर दी गई। उनके पार्थिव शरीर के साथ भी बर्बरता की गई थी,जो लोग देख भी न पाए।महज 40 वर्ष की आयु में वे भारत माता की गोद में समा गए। एक सच्चा पत्रकार जिसको न धन चाहिए था न यौवन,न दौलत न सोहरत।विद्यार्थी जी जैसे पत्रकार ने पत्रकारिता को अपने खून से सींचा है।पत्रकारिता को एक ऊँचाई दी है। अब आपको और हम सबको भारत देश के हजारों – करोड़ों लोगों को ये निर्णय करना होगा कि हमें किस तरह की पत्रकारिता चाहिए। वातानुकूलित कमरे में बैठे खूबसूरत चहेरे जो हिन्दू – मुस्लिम कर देश को तोड़ने का काम करते हैं। या फिर गणेश शंकर विद्यार्थी जी जैसे महान व्यक्तित्व जिन्होंने हिन्दू – मुस्लिम की लड़ाई को रोकने के लिए अपनी जान तक दे दी।और उन्हें मिलाने का हर संभव प्रयास किया।
।।जय हिंद,वंदे मातरम।।
।।जय साहित्य।।
राज वीर शर्मा
संस्थापक – सह – अध्यक्ष
हिंदी विकास मंच