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23 Jul 2020 · 1 min read

बरसने लगे जो कभी ये बादल I

बरसने लगे जो कभी ये बादल,
और तड़पने लगे ये चंचल मन ।

ख्वाहिशों की गठरी को तुम अपनी खोल देना।
और भीगा देना खुद यू आसमां के तले,
जैसे मिला हो कोई बरसों बाद इन्हें ।

फिर बहा के अपनी झंझटों को इसमें तुम ,
धो लेना खुद यू तुम ।
जैसे लगा हो कोई दाग कब से ।

बरसने लगे जो कभी ये बादल,
और तड़पने लगे ये चंचल मन ।

पहन कर तुम फिर एक नया रूप ।
बुनना सादगी से सपने हजार ।

कुछ को रखना सब्र के पिटारे में ,
बाकी को करना आजाद ।
जैसे कोई बंद पंछी, उड़ता बरसो बाद ।

बरसने लगे जो कभी ये बादल,
और तड़पने लगे ये चंचल मन ।

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