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15 May 2020 · 1 min read

एक बेबह्र ग़ज़ल

मुफ़लिसी तो मेरे यार खुद ही एक मर्ज़ है।
वो जीएं या न जीएं यहाँ पर किसे गर्ज़ है।

दर्द तो है दर्द उसकी हरिक रग में रवानी
करता है ऊंच-नीच ये इंसान ख़ुदगर्ज़ है।

उम्रदराज मगर हमसफ़र को झेल रहा हूँ
आया ये ग़म हिस्से मेरे कुछ तो कर्ज़ है।।

ऐ मेरे ख़ुदा है ज़िल्लत ज्यूँ आ गई कज़ा
चारों तरफ है मातम तेरा कुछ तो फर्ज़ है।

या सबको दे उबार याकि ला दे ज़लज़ला
सजदा करूं मैं तेरा बस यही एक अर्ज़ है।

रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
©

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