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14 May 2020 · 1 min read

पराधिनता का बोध भाव!!

स्वाधीन हैं हम तब तक ही,
जब तक नहीं किसी का हस्तक्षेप,
जैसे ही किसी ने दिया दखल,
हमारे जीवन में, अनाधिकार,
नहीं कर पाते हम उसे स्वीकार,
हो जाते हैं हम बिचलित,
और करने को उत्सुक हो जाते हैं प्रतिकार।

प्रतिकार करने को जब होते तैयार,
तब अपनी सामर्थ्य को आंकते,
हों यदि हम समर्थ,
तो कर सकते हैं हम प्रतिकार,
और यदि नहीं पाते सामर्थ्य,
तो होकर रह जाते हैं लाचार।

हम रहें किसी के अधिन,
यह सहजता से हमें स्वीकार्य नहीं,
किन्तु सदा अपने अनुरूप हो विधान,
यह भाग्य में लिखा नहीं,
और तब तक हमको,
रहना ही होगा पराधीन।

स्वाधीन रहना मानव स्वभाव है,
यह प्रकृति का अमुल्य भाव है,
यह निजी मान सम्मान का प्रभाव है,
नहीं स्वीकार्य हमें इसका अभाव है,
लेकिन यहां व्यवस्था का अनुचित दबाव है।

जैसा भी हो यह पर प्रतिकूल है,
ना ही शिष्टाचार के अनुकूल है,
स्वतन्त्रता मानव स्वभाव का मूल है,
तब फिर किसी की स्वतन्त्रता का हनन भूल है,
मानवता को यह नहीं कबूल है।

मत करो किसी की निजता का हनन,
अपने स्वार्थ के लिए किसी की स्वतन्त्रता का दमन,
सबको सम्मान से जीने की आजादी दो,
सब का आपस में बैर भाव ना हो,
सब मिल बैठ कर, जतन करो,
अपने, और अपनों के लिए प्रयत्न करो,
छिना झपटी से स्वंयम को मुक्त करो,
स्वंयम जियो और औरौ को भी जीने दो,
यही तो पूर्वजों का मूल मंत्र है,
तो क्यों स्वंयम को इस वरदान से दूर करो।।

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