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19 Feb 2020 · 3 min read

बूट पॉलिस वाला

जनवरी की ठिठुरती अलसुबह में वैशाली मेट्रो स्टेशन से महागुण अपार्टमेन्ट की तरफ़ मैं बढ़ा ही था कि बच्चो का एक समूह सामने से आता दिखाई दिया। सभी के हाथों में जूते चमकाने का ब्रस था। दो-चार बच्चों ने मुझे घेर कर जुते पर पॉलिस करवाने का आग्रह भी किया। मैंने मना किया तो वो किसी नए ग्राहक की खोज में चले गए। उस झुण्ड में सबसे पीछे आ रहा छह-सात साल का बच्चा वहीँ रुक गया। धीरे-धीरे मेरे काफ़ी क़रीब आ गया।

“करवा लो साहब, आपके कपड़ों की तरह ही जूते भी चमक जायेंगे।” उनमे से एक बच्चा तो मेरे पैर पकड़ कर बोला, “सुबह से कुछ नहीं खाया है। एक कप चाय के पैसे ही दे दो साहब।”

“खुले नहीं हैं। बाद में दे दूंगा।” मैंने उससे पिण्ड छुड़ाने के लिए कहा क्योंकि मुझे एक संगीत के कार्यक्रम में भाग लेने जाना था और मैं पहले ही काफ़ी लेट हो चुका था। हृदय में थोड़ा विषाद तो था कि मैं चाह कर भी उस बच्चे की कुछ मदद नहीं कर पाया था।

वैशाली जब पिछले दो दशक पहले मैं आया था तो यहाँ का अधिकांश हिस्सा जंगल, सुनसान था। पूंजीवादी व्यवस्था के ज़ख़्मों से पीड़ित शहरों में दिनोंदिन बढ़ती आवास की समस्या के कारण बहुमंज़िला इमारतें, बड़े-बड़े अपार्टमेंट और माल तेज़ी से हर रिश्ते-नाते, इंसानियत और नैतिक मूल्यों को झकझोर रहे है। पैसा और समय जैसे कहीं विलुप्त हो चुके है। न कोई किसी के, जीने से खुश है, न किसी को किसी के मरने पर मातम।

मैं रिक्शा करके जल्दी से कार्यक्रम में पहुँचा। प्रोग्राम जारी था। मेरा नाम पुकारा गया तो मैं भी बेमन से दो-चार कवितायेँ पढ़कर और इनाम की ट्रॉफी लेकर अपने सीट पर वापिस बैठ गया। लेकिन मन आत्मगिलानी से भरा हुआ था। मैं आयोजक से माफ़ी मांगते हुए कार्यक्रम से जल्दी निकल आया। ये सोचकर की उस बच्चे को चाय पिलाऊँगा और जो वो खाना चाहेगा खिलाऊंगा।

मैं पैदल ही वैशाली मेट्रो स्टेशन की तरफ वापिस चल दिया। मैं देखकर हैरान था कि वहां दुकानों पर वही बच्चे चाय और रस फैन खा रहे थे। वो बच्चा जिसने मेरे अंतर्मन को झकझोरा था वह भी मज़े से एक तरफ बैठकर चाय-मट्ठी खा रहा था। मैंने उसकी जेब में पचास रूपये दाल दिए और दुकानदार को कहा, “इसे जो खाना है पेटभर खिला देना।”

“साहब, आप जैसे देवताओं ने इन्हें भीख मांगना सिखा दिया है।” दुकानदार ने तेज़ स्वर में कहा, “बूट पॉलिस तो ये करते नहीं, कोई न कोई तरस खाकर इन्हें चाय-पानी और भोजन खिला देता है।”

“भाई, यही होता है जब कर्म का उचित पारितोषिक नहीं मिलता तो व्यक्ति विशेष के मन में अकर्मण्यता घर कर जाती है। अगर लोगों के दस-बीस रूपये से इनका छोटा-सा पेट भर जाता है तो फिर इन्हें दोष मत दो। बोलना है तो उन नेताओं और बिजनेसमेन लोगों से बोलो जो करोड़ो को अरबों, अरबों को खरबों बनाने के चक्कर में उलटे-सीधे गोरखधन्धे करते हैं।” ये कहकर मेरे दिल का बोझ हल्का हो गया था और प्रसन्नचित मुद्रा में, मैं मेट्रो स्टेशन की तरफ आगे बढ़ गया।

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