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7 Feb 2020 · 1 min read

जिन्दगी अस्मत लुटाती रही

जिन्दगी अस्मत लुटाती रही
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हमें मिला नहीं कोई साहिल
जिन्दगी गोते लगाती रही

जो मिले हमें छलते ही रहे
जिन्दगी अस्मत लुटाती रही

बख्शा नहीं ,सभी लूटते रहे
जिंंदगी सदा दंभ खाती रही

अपनों ने ठगा, गैरों से ठगी
जिन्दगी वर्चस्व गिराती रही

ना मंजिल मिली, ना ही ठौर
जिंंदगी ठोकरें ही खाती रही

सितमगर है बहुत ये दुनिया
जिन्दगी सितम सहती रही

मिलते रहे और बिछुड़ते रहे
जिन्दगी वहीं पर ठहरी रही

रातें कट गई लंबी वो सारी
जिन्दगी गमों से सहमी रही

सुखविंद्र मेले में भी अकेला
जिंदगी दरिया में बहती रही

सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी रा़ वाली (कैथल)

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