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20 Oct 2019 · 1 min read

अन्याय

घर के सामने वाली
राह पर लगे पाषाण को
आज गौर से देखा
तो पाया वैसा ही
जैसे बचपन में देखा था
नज़र दौड़ाई फिर आस पास…..
सीना ताने खड़े पहाड़
गीत गाते खेत खलिहान
और निर्जन कुआं भी
सबका यौवन था
चिरसंचित……
न वक्त ने की थी
उनके चेहरे पर कलाकारी
और जीर्ण भी तो
नही हुए थे……
सब मिलकर
उपहास कर रहे थे
मेरी मूर्खता ,
मेरी नश्वरता का….
समय तू इतना निष्ठुर क्यों है?
ये अन्याय क्यों?
क्यों नहीं ठहरता मेरे लिए भी?
या फिर कह दे
तेरा वश भी
मुझ पर ही चलता है ।।
सीमा कटोच

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