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16 Sep 2019 · 2 min read

===माँ===

***माँ***
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आज एक माँ की महीमा सुनाता हु,
चंद वर्णो को कलम मे पिरो देता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर भी नाकाम सा जतन करता हु।

पेट के खातिर जब दूर माँ से जाता हु,
रो नही पाता महज घूटता ही रहता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर भी अश्को की गांठ खोल देता हु।

जननी तुझसे जुदा जब भी मैं होता हु,
सो नही पाता महज करवटे बदलता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर भी नींद की गोद मे खो जाता हु।

जुदा तुझसे कहा ठीक से खा पाता हु,
माँ खिलाये हाथो से यही राह लेता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर भी टुकडा टुकडा तो खा लेता हु।

माँ के हाथो से नीर मानो सुधा पीता हु,
शहर के पानी से कहां तृष्णा बुझाता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर भी कतरा कतरा गटक जाता हु।

रोज की भागदौड से चूर चूर हो जाता हु,
मंजिल की तलाश मे चलता ही रहता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर तेरे आशीष से साहस जुटा लेता हु।

जीवन की मझधार मे जब डगमगाता हु,
निज बूते पर बेडापार लगाना चाहता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर तेरे ही प्रताप से किनारा पा लेता हु।

बिना तेरे इस विराने मे कहां जी पाता हु,
ऐसे जीने से तो मरना उचित समझता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर भी लम्हा लम्हा सांस खिंचता हु।

हर जन्म मे तू ही मिले सपना ये देखता हु,
तेरी गोद मे बच्चा सा खूब सोना चाहता हु।
सामर्थ्य कहा मेरा इतना,
फिर भी रोज दुआ मे तुझे मागंता रहता हु।
✍️प्रदीप कुमार”निश्छल”

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