Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
10 Sep 2019 · 14 min read

तेवरी को विवादास्पद बनाने की मुहिम +रमेशराज

ग़ज़ल-फोबिया के शिकार कुछ अतिज्ञानी हिन्दी के ग़ज़लकार तेवरी को लम्बे समय से ग़ज़ल की नकल सिद्ध करने में जी-जान से जुटे हैं। तेवरी ग़ज़ल है अथवा नहीं] यह सवाल कुछ समय के लिये आइए छोड़ दें और बहस को नया मोड़ दें तो बड़े ही रोचक तथ्य इस सत्य को उजागर करने लगते हैं कि हिन्दी में आकर ग़ज़ल की शक़ल से गीतनुमा कुल्ले तो फूट ही नहीं रहे हैं] उसमें हिन्दी छन्दों की जड़ें भी अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही हैं।
भले ही उर्दू-फारसी के जानकार हिन्दी ग़ज़लकारों पर हँसें] बहरों के टूटने की शिकायत करें लेकिन हिन्दी का ग़ज़लकार ग़ज़ल की नयी वैचारिक दिशा तय करने में लगा हुआ है। हिन्दी में ग़ज़ल अब नुक्ताविहीन होकर *गजल’ बनने को भी लालायित है। उसकी शक़्ल भले ही ग़ज़ल जैसी हो लेकिन उस शक़्ल की अलग पहचान बनाने के लिये कोई उस पर *गीतिका’ का लेप लगा रहा है तो कोई उस पर *मुक्तिका’ का पेंट चढ़ा रहा है। ग़जल के स्वतंत्र व्यक्तित्व की पहचान स्थापित करने की इस होड़ में ग़ज़ल को *नई ग़ज़ल, अवामी ग़ज़ल, व्यंग्यजल] *अग़ज़ल, *सजल’ के कीचड़ में भी धकेला जा रहा है। नये-नये नामों के कीचड़ में सनी, कुकुरमुत्ते की तरह उगी और तनी, इसी हिन्दी ग़ज़ल को देखकर अब यह आसानी से तय किया जा सकता है कि-

हिन्दी में ग़ज़ल ग़रीब की बीबी है-
————————————————————————
“आज ग़ज़ल धीरे-धीरे गरीब की बीबी होती जा रही है। लोग उसकी *सिधाई (सीधेपन) का भरपूर और गलत फायदा उठा रहे हैं। हर कोई ग़ज़ल पर हाथ साफ कर रहा है और ग़ज़ल टुकुर-टुकुर मुँह देख रही है।“
कैलाश गौतम, प्रसंगवश, फरवरी-1994, पृ. 51

हिन्दी में ग़ज़ल की सार्थक ज़मीन कोई नहीं
—————————————————–
“इधर लिखी जा रही अधिसंख्य ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी ग़जलों के पास अपनी कोई सार्थक जमीन है ही नहीं। मेरी यह बात निर्मम और तल्ख लग सकती है। किन्तु बारीकी से देखें और हिन्दी ग़ज़ल की जाँच-पड़ताल करें तो अधिसंख्य ग़ज़लों में कच्चापन मिलेगा। दोहराव, विषय की नासमझी, अनुभवहीनता और कथ्यहीन अशआर इस कदर लिखे और प्रकाशित हुए हैं कि स्तरीय ग़ज़लें कहीं भीड़ में खो गयी हैं।“
ज्ञान प्रकाश विवेक, प्रसंगवश, फरवरी-1994] पृ. 52

हिन्दी ग़ज़ल न उत्तम कविता है] न उत्तमगीत
————————————————————————————
“अभी तो मुझे हिन्दी ग़ज़ल से संतोष नहीं है– बाजार में माल चल गया। शुद्ध के नाम पर क्या-क्या वनस्पतियां मिलावट में आ गयी] इसका विश्लेषण साधारण पाठक तो कर नहीं पाता। हिन्दी में लिखी जाने वाली ग़ज़ल नामक रचना न उत्तम कविता है,न उत्तम गीत।“
डा. प्रभाकर माचवे] प्रसंगवश] फरवरी-1994 पृ. 51

शायरी चारा समझकर सब गधे चरने लगे
————————————————————————————
“आज ग़जल के नाम पर हिन्दी में जो कुछ छप रहा है] ऐसी रचनाओं को ही देखकर कभी समर्थ रामदास ने मराठी में कहा था-“शायरी घास की तरह उगने लगी है।“ किसी ने उर्दू में कहा-“शायरी चारा समझकर, सब गधे चरने लगे।“
डा. प्रभाकर माचवे] प्रसंगवश] 1994 पृ. 51
हिन्दी में नुक़्ताविहीन *गजल’, * मुक्तिका’, ‘गीतिका’, ‘व्यंगजल’, ‘अगजल’, ‘नयी गजल’,’अवामी ग़ज़ल’, ‘सजल’ की फसल के आकलन के लिये उपरोक्त तथ्यों का सत्य इस बात की चीख-चीख कर गवाही दे रहा है कि ग़ज़ल की काया की माया में कस्तूरी हिरन की तरह भटकने वाले हिन्दी ग़ज़लकार, ग़ज़ल के उस्तादों या पारखी विद्वानों से कुछ भी समझने-सीखने को तैयार नहीं हैं। उनकी ग़ज़ल, ग़जल है भी या नहीं, इसकी परख के लिये वे ग़ज़ल के उस्तादों के पास इसलिए नहीं जाते क्यों कि उन्हें पता है कि वे हिन्दी में ग़ज़ल को लाकर जिस प्रकार उसकी वैचारिक दिशा तय कर रहे हैं, उसमें ग़ज़ल की मूल आत्मा *प्रणयात्मकता’ को ही नहीं, उसके शिल्प के पक्ष मतला-मक्ता को काटा-छाँटा गया है। ग़ज़ल की मुख्य विशेषता *हर शे’र की स्वतंत्र सत्ता’ को भी धूल चटाकर उसमें गीत का ओज भरा गया है। हिन्दी ग़ज़ल के इस सरोज को ये एक दूसरे को दिखा रहे हैं। एक-दूसरे के लिये प्रशंसा-गीत गा रहे हैं। लेकिन ग़ज़ल के उस्तादों से कतरा रहे हैं।
ग़ज़ल के एक उस्ताद हैं तुफैल चतुर्वेदी, जो *लफ्ज’ नामक पत्रिका का संपादन करते हैं, उन्होंने लफ्ज़ वर्ष-1 अंक-4 के पृष्ठ-63 व 64 पर हिन्दी ग़जल के एक चर्चित हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुवे के ग़ज़ल संग्रह *चुभन’ की समीक्षा लिखी है। इस पुस्तक की ग़ज़लों को लेकर लिखी गयी भूमिका में भले ही हिन्दी ग़ज़ल के एक अन्य हस्ताक्षर डा. उर्मिलेश ने तारीफों को पुल बाँधे हों, किन्तु *चुभन’ ग़ज़ल संग्रह के बारे में तुफैल चतुर्वेदी का क्या कहना है, आइए गौर फरमाएँ-

हिन्दी ग़ज़ल में ग़ज़ल के मूलभूत नियमों का उल्लंघन
——————————————————————–
**समीक्षा के लिये प्रस्तुत आचार्य भागवत दुवे की पुस्तक *चुभन’ छन्द-दोष, भाषा का त्रुटिपूर्ण प्रयोग, व्याकरण की चूक, ग़ज़ल में शेरियत का अभाव, ग़ज़ल के मूलभूत नियमों के उल्लंघन से भरी पड़ी है। आप किसी भी गलती का नाम लें, वो किताब में मौजूद है।“
संग्रह की समीक्षा करते हुए तुफैल चतुर्वेदी आगे लिखते हैं-

हिन्दी ग़ज़ल बढ़ई द्वारा मिठाई बनाने की कोशिश
—————————————————————-
**मूलतः *चुभन’ पुस्तक बढ़ई द्वारा मिठाई बनाने की कोशिश है। जो लौकी पर रन्दा कर रहा है, आलू रम्पी से काट रहा है, मावे का हथौड़ी से बुरादा बना रहा है और पनीर को फैवीकाल की जगह प्रयोग करने के बाद प्राप्त हुई सामग्री को 120 रू. में बेच सकने की कोशिश कर रहा है। यहाँ मुझे एक ऑपेरा की समीक्षा याद आती है, जिसमें समीक्षक ने उसकी गायिका को मशवरा दिया था कि गला खराब हो तो गाना गाने की जगह गरारे करने चाहिए।“ (लफ्ज वर्ष-1 अंक-4] पृ. 63-64)
हिन्दी के विद्वान लेखक कैलाश गौतम, ज्ञान प्रकाश *विवेक’, डॉ. प्रभाकर माचवे और उर्दू के उस्ताद शायर तुफैल चतुर्वेदी की उपरोक्त टिप्पणियों से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी में लिखी या कही जाने वाली ग़ज़ल की औसत शक़ल उस ग़ज़ल की तरह है जिसकी आँखें नोच ली गयी हैं] टाँगें तोड़ दी गयी है,जीभ बाहर की तरफ निकली हुई है] उसके गले से जो चीख निकल रही है, उसे हिन्दी ग़जलकार कथित सुन्दर ही नहीं, सुन्दरतम शब्दों में बाँध रहा है और अपनी इस अभिव्यक्ति को ग़ज़ल नाम से मनवाने को आतुर लग रहा है।
बहरहाल, हिन्दी साहित्यजगत में हिन्दी ग़ज़लकार काँव-काँव के महानाद की ओर अग्रसर हैं। इनके बीच उभरते हुए जो ग़जल के स्वर हैं, उनके सामाजिक सरोकार एक भयानक चीख-पुकार में तब्दील होते जा रहे हैं।

अब ऐसे हैं हिन्दी ग़ज़ल के ‘वक़्त के मंजर’
—————————————————
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम हिन्दीग़ज़ल के चर्चित हस्ताक्षर ही नहीं, उच्चकोटि के समीक्षक और आलोचक हैं। उनका ग़जल संग्रह *वक्त के मंज़र’ इस बात की सीना ठोंककर गवाही देता है कि-
वेश कबिरा का धरे ललकारती है अब ग़ज़ल
अब तो हुस्नो-इश्क की बातें पुरानी] क्या कहूँ।
*आत्मिका’ के रूप में डॉ. ब्रह्मजीत गौतम यह भी स्वीकारते है कि वे कबीर जैसे फक्कड़पन के कारण साहित्य के यातायात के कायदे-कानून समझे बिना ग़जल की राजधानी पहुँच गये हैं-
कायदे-कानून यातायात के समझे बिना
मैं हूँ आ पहुँचा ग़ज़ल की राजधानी, क्या कहूँ।

हिन्दी ग़ज़ल के सामाजिक सरोकार
————————————————-
कबिरा का वेश धारे डॉ. ब्रह्मजीत गौतम की ग़ज़ल किसको ललकार रही है, यह तो उनके शे’र से पता नहीं चलता, किन्तु यह तथ्य अवश्य उजागर होता है कि उनकी ग़ज़ल ने हुस्नोइश्क की बातों को पुराना कर दिया है और एक नये रूप में पहचान बनाने के लिए सामाजिक सरोकार के सारगर्भित प्रतिमान गढ़ रही है। उनके संग्रह की प्रथम ग़ज़ल के प्रथम शे’र में ही सामाजिक सरोकार की सामाजिक विसंगतियों को नेस्तनाबूत करने के लिए युद्ध करने को तत्पर एक सैनिक जैसी पहली ललकार देखिए-
गीत खुशियों के किस तरह गाऊँ
बेवफा तुझको भूल तो जाऊँ।
उक्त शे’र में आज का कबीर हुस्नो-इश्क की बातें छोड़कर किस विसंगति पर तीर छोड़ रहा है, ग़ज़ल को अग्निऋचा बताने वाले ग़ज़ल के पुरोधा अगर बता सकें तो पूरा हिन्दी ग़ज़ल साहित्य आनंदानुभूति से भर सकता है। हमारी समझ से तो इस तीर की तासीर कोई इठलाता-मदमाती प्रेमिका ही बता सकती है।
इसी ग़ज़ल के दूसरे शे’र में आज का कबीर इस बात के लिये अधीर है कि *जालिम’ शब्द को हिन्दी के अनुकूल किया जाये और उसे *जालिमा’ की लालिमा से और नुकीला और चमकीला बनाकर उर्दू अदब के प्रतिकूल किया जाये।
जालिमा] ग़म तेरी जुदाई का
चाहकर भी भुला नहीं पाऊं।
जुदाई के ग़म में जो आक्रोश उत्पन्न हो रहा है, वह प्रेमिका को *जालिमा’ बता रहा है] हमें तो इस सामाजिक सरोकार की लड़ाई में आनंद आ रहा है।इस शे’र के पाठक इसे कैसा महसूस कर रहे हैं, वे ही जानें।
बहरहाल, अपने इसी अनिर्वचनीय आनंद में गोता लगाते हुए आइए इस संग्रह की दूसरी ग़ज़ल पर आते हैं। इसका भी रहस्य आप सबको बताते हैं-

हिन्दी ग़ज़ल गीत की शक़ल
———————————————————
ग़ज़ल का प्रत्येक शे’र उसके अन्य शे’रों से अलग और स्वतंत्र सत्ता रखता है। यह ग़ज़ल की महत्वपूर्ण विशेषता ही नहीं , उसकी अनिवार्य शर्त है। किन्तु हिन्दी के ग़ज़लकार इस शर्त की हत्या कर हिन्दी में ग़ज़ल कुछ इस तरह कह रहे हैं कि उसकी कथित ग़ज़ल के शेरों के भाव एक-दूसरे के कथ्य के पूरक बन जाते हैं और गीत जैसा रूप दिखलाते हैं। ग़ज़ल को कीचड़ बनाकर ग़ज़ल के मलवे से उठाया गया यह कमल ग़ज़ल की कैसी शक़ल है, आइए इसका भी अवलोकन करें-
श्री ब्रह्मजीत गौतम की दूसरी कथित ग़ज़ल में आज के मंत्री रूपी महानायक के आगमन की जैसे ही बस्ती को खबर लगती है तो इस ग़ज़ल के पहले शे’र में बस्ती-भर में खुशियाँ छा जाती हैं। दूसरे शे’र में बताया जाता है कि इस महानायक का ज्यों ही दौरे का कार्यक्रम बना था तो बस्ती की तरफ सारी सरकारी जीपें दौड़ पड़ीं। तीसरे शे’र में पंचों की पंचायत बिठाकर उसके स्वागत की तैयारियाँ कर ली गयीं। चौथे शे’र में यह निर्देश दिया गया कि उस महानायक को कौन माला पहनायेगा। और कौन उसका यशोगान करेगा। पाँचवें शे’र का दृश्य यह है कि स्वागत-स्थल को फूलों से इस तरह सजाया गया जैसे वर्षों से वहाँ फुलवारी शोभायमान हो। छठा शे’र पी.डब्ल्यू.डी. विभाग द्वारा दीवारों को पोतने और बजरी से राह सँवारने में जुट गया है। अन्तिम शे’र में महानायक के पधारने और उसके साथ फोटो खिंचाने के जिक्र के साथ-साथ महानायक के वादों की अनुगूँज को रखा गया है।
इस ग़ज़ल में ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों से अलग हर अंदाज नया है, जो उद्धव शतक की याद को तरोताजा करते हुए बताता है कि कोई माने या न माने हिन्दी में ग़ज़ल का रूप गीत जैसा है। इस विषय में उर्दू वालों का विचार क्या है, जानना मना है। यह हिन्दी की ग़ज़ल है] इसमें ग़ज़लियत तलाशना, बालू से तेल निकालना है] बिना सोचे-समझे इसे ग़ज़ल मानना है। यह ग़ज़ल कबीर का वेश धरे हमारे गलीज सिस्टम को ललकार रही है या उसकी आरती उतार रही है? इसका अनुमान लगाना भी मना है। कुल मिलाकर ग़ज़ल के नाम पर कोहरा घना है।
अतः बात को न बढ़ाते हुए पुनः कबीर का बानी को दुहराते हुए *वक्त के मंज़र’ संग्रह की तीसरी ग़ज़ल के चौथे शे’र पर आते हैं। इस शे’र में आज का कबीर बता रहा है कि नायिका के कपोल के तिल ने उसे ढेर कर दिया है-
मेरा कातिल है तेरे रुख का तिल
जान मेरी तो ले गया मुझसे।

क्या बहरों का कबाड़ा कर लिखी जाती है हिन्दीग़ज़ल ?
—————————————————————-
नायिका के तिल पर जान न्यौछावर कर देने वाली तीसरी ग़ज़ल सम्भवतः *फाइलातुन मफाइलुन फैलुन’ बहर में कही या लिखी गयी है। जो कि 17 मात्रा की ठहरती है। इस बहर में ग़ज़ल के प्रारम्भ के दो अक्षरों में दीर्घ के बाद लघु स्वर का प्रयोग करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। ऐसा न होने पर मिसरा बहर ही नहीं लय से भी खारिज हो जाता है। लेकिन यह हिन्दी ग़ज़ल का ग़ज़ल की बहर से कैसा नाता है कि इस तीसरी ग़ज़ल के मतला की दूसरी पंक्ति के प्रारम्भ में *ऐसी’ शब्द, इसके चौथे शे’र के पहले मिसरे के आरम्भ में *मेरा’ शब्द, छठे शे’र के दूसरे मिसरे में *लेके’ शब्दों के प्रयोग के कारण *फाइलातुन’ घटक का *फाइ’ गतिभंगता का ही शिकार नहीं होता, अपने 17 मात्राओं के निश्चत आधार को भी बीमार बनाता है। फिर भी इसे हिन्दी ग़ज़ल बताने में किसी का क्या जाता है? हिन्दी ग़ज़ल में इस तरह का दोष आता है तो आता है।
इसीलिए तो हिन्दी ग़ज़ल में आये दोष को लेकर मस्त, बेफिक्र और मदहोश ग़ज़लकार सीना ठोंकते हुए यह बयान देकर महान बनने की कोशिश करता है-
‘जीत’ न करना बह्र की चर्चा अब हिन्दी ग़ज़लों में
वरना इक दिन लोग तुम्हें सब बल्वाई बोलेंगे!
ग़ज़ल की जान उसकी मूल पहचान *बहर’ को हिन्दी में लिखी जाने वाली ग़ज़ल से धक्के मारकर, टाँग घसीटकर, बाल खींचकर बाहर कर देने से अगर हिन्दी ग़ज़लकार के कर्म में संतई’, सहनशीलता आती है और बल्वाई होने के आरोप से मुक्त हुआ जा सकता है तो आजकल इससे उपयुक्त और भला क्या वातावरण हो सकता है। ग़ज़ल के बदन से बहर का यह चीरहरण यदि हिन्दी ग़ज़लकारों के लिये सुकर्म है तो इसमें कहाँ की और कैसी शर्म है?

हिन्दी ग़ज़ल के काफियों और रदीफ को विकृत बनाना क्या ग़ज़ल का ओज बढ़ाना है?
———————————————————
‘वक्त के मंजर’ ग़जल संग्रह के पृ.-33 पर प्रकाशित ग़ज़ल के काफियों का रूप बेहद अनुपम है। इस ग़ज़ल में *शह्र’ काफिये के साथ कदमताल करते हुए *लहर’ और *नहर’ काफिये *लह्र’ और *नह्र’ बनकर लँगड़ाते हुए चल रहे हैं। *लहर’और *नहर’ काफियों की टाँगे तोड़कर *शह्र’ के साथ कदमताल कराने वाला ग़ज़लकार अपने इस सुकृत्य से सम्भवतः अनभिज्ञ नहीं। तभी तो वह सीना तान यह बयान दे रहा है- *काफिये का होश है ना वज़न से है वास्ता’।
ठीक इसी प्रकार का सुकर्म ग़ज़ल संख्या 26 में किया गया है जिसके काफिये हवाओं’,फजाओं’, *युवाओं’ से तालमेल बिठाने के चक्कर में ग़ज़लकार ने अन्तिम शे’र में *पाँवों’ को *पाओं’ में तब्दील कर अपनी नायाब सोच का परिचय दिया है। आगे वाली ग़ज़ल के काफिये में आने वाले स्वर के आधार को बीमार करते हुए *व्यथा’ की तुक *अन्यथा’ से ही नहीं *वृथा’ से भी मिलायी है।
ग़ज़ल संख्या तेरह में जिस होशियारी के साथ *भारी’ शब्द की तुक *हुशियारी’ बनकर उभरी है। हिन्दी ग़ज़ल के पंडित इस नव प्रयोग पर काँव-काँव करते हुए कह सकते हैं कि यह मूल शब्द की तोड़-मरोड़ के लिए काफिये के रूप में किया गया प्रयोग उतना ही मौलिक है जितना कि ग़ज़लसंख्या पचास में *घबड़ाते’ की तुक *अजमाते’ बनकर प्रयुक्त हुई है। इस प्रयोग ने भी नयी ऊँचाई छुई है।
ग़ज़ल संख्या बयालीस के मतले में *आसमानों’ की तुक *बेईमानों’ से मिलाकर हिन्दी ग़ज़लकार ने यह भी घोषणा कर दी है कि स्वर के बदलाव के आधार को मारकर भी अशुद्ध काफियों में शुद्ध मतला कहा जा सकता है। सहनशील बने रहने के लिए इस सुकर्म को भी सहा जा सकता है।
हिन्दी में ग़ज़ल अब हिन्दी छन्द के आधार पर भी अपनी पहचान बनाने को व्याकुल है। इसलिए संग्रह में पृ. संख्या-56 पर एक कथित *दोहा ग़ज़ल’ भी विराजमान है। यह ग़ज़ल इसलिये महान है क्योंकि इसमें काफिये के अन्त में तीन बार *बीर’ तुक का प्रयोग हुआ है। सयुक्त रदीफ-काफिये की इस ग़ज़ल में एक पहेली है, जिसे हल करते आप काफिये और रदीफ को खोजने के लिये घंटों मगजमारी कर सकते हैं।
एक ही कथित ग़ज़ल अगर 100 शे’रों की हो और उसमें स्वर के बदलाव का आधार काफिया बीमार नजर आयें तो बात समझ में आती है कि स्वरों के बदलाव का आधार दुहराव का शिकार होगा ही, किन्तु 5, 7,11 शे’रों की ग़ज़ल में यह खामी इस तथ्य को द्योतक है ग़ज़लकार शुद्ध तुकें ला सकता था किन्तु उसने ऐसा न कर बार-बार काफिये को रदीफ की तरह प्रयुक्त कर उसे न तो शुद्ध काफिया रहने दिया और न शुद्ध रदीफ। इस तकलीफ से ग्रस्त आज की हिन्दी ग़ज़ल फिर भी मदमस्त है, तो है।
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के ग़ज़ल संग्रह *वक़्त के मंजर’ में ग़ज़ल के नाम पर जो कुछ भी परोसा गया है] वह भी इसमें आत्म स्वीकृति के रूप में मौजूद है-
अपनी ग़ज़लों के लिये अपनी जुबानी क्या कहूँ
कैक्टस हैं ये सभी या रातरानी] क्या कहूँ।
ग़ज़ल यदि रातरानी की तरह खुशबू बिखेरती विधा है तो यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इस संग्रह की अधिकांश ग़ज़लों से यह खुशबू फरार है। सही बात तो यह है कि हिन्दी में ग़ज़ल के नाम पर एक कैक्टस का जंगल उगाया जा रहा है, जिसमें से बहर का ओज फरार है। काँटे की तरह कसते अशुद्ध रदीफ-काफियों की भरमार है। शे’र की स्वतंत्र सत्ता धूल चाट रही है।
हिन्दी में आकर ग़ज़ल अपने खोये हुए शास्त्रीय सरोकारों को माँग रही है। हिन्दी ग़ज़ल के पुरोधा हैं कि चुम्बन में आक्रोश] आलिंगन में क्रन्दन, प्रणय में अग्निलय के आशय भी जोड़कर ग़ज़ल को न तो एक प्रणयगीत रहने दे रहे हैं और न उसे सामाजिक सरोकारों से जोड़कर नयी पहचान देने को तैयार हैं। ऐसे विद्वानों को कौन समझाये कि कृष्ण जब रास रचाते हैं तो रसिक पुकारे जाते हैं किन्तु जब वे द्रौपदी की लाज बचाते है तो *दीनानाथ’ कहलाते हैं। चरित्र बदलते ही कैसे नाम भी बदल जाता है, इसकी पहचान शिक्षार्थी और शिक्षक, शासक और शासित, अहंकारी और विनम्र, स्वाभिमानी और चाटुकार के अन्तर को समझने वाले ही बतला सकते हैं। जिन विद्वानों की मति पर रूढ़िवादी चिन्तन के पत्थर रखे हुए हैं, उन्हें ही तेवरी और ग़ज़ल की प्रथक पहचान करने में परेशानी होती है और सम्भवतः होती रहेगी।

तेवरी को विवादास्पद बनाने में जुटे हैं हिन्दीग़ज़ल के कथित विद्वान
———————————————————-
हिन्दी ग़ज़ल के जो विद्वान ग़ज़ल का उसके शास्त्रीय सरोकारों के साथ सृजन नहीं कर सकते, ऐसे विद्वान ही तेवरी को विवादासाद बनाने में जी-जान से जुटे हुए हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि इनमें सम्पादक भी शामिल हो गये हैं जो जानबूझ कर तेवरीकारों की प्रकाशनार्थ भेजी गयी कविताओं जैसे *हाइकु’ पर *हाइकु में तेवरी’, *ग़ज़ल’ पर ग़ज़ल में तेवरी’,चतुष्पदी शतक’ पर *चतुष्पदी शतक के अंश-तेवरियाँ’, ‘मुक्तक-संग्रह’ पर मुक्तक-संग्रह के अंश- तेवरियाँ, *तेवरी’ पर *ग़ज़ल में तेवरी’ का लेबल लगाकर तेवरी के मूल चरित्र अनीति- विरोध को ही नहीं, उसके शिल्प को भी संदिग्ध और विवादास्पद बनाने का प्रयास कर रहे हैं। द्विपदीय तेवरों को त्रिपदीय रूप में छापकर अपने इस सुकृत्य पर मगन हो रहे हैं।

तेवरी का प्रामाणिक प्रारूप-
————————————–
1. तेवरी न मुक्तक है, न हाइकु है, न दोहा है, न किसी छन्द विशेष का नाम है।
2. बिना विशिष्ट अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था के तेवरी न दोहे में लिखी जाती है, न हाइकु में, न जनक छन्द अथवा किसी अन्य छन्द में लिखी जाती है।
3. तेवरी के समस्त तेवर केवल और केवल द्विपदीय रूप में ही निश्चित तुक-विधान के साथ एक सम्पूर्ण तेवरी का निर्माण करते हैं।
4. तेवरी के तेवर किसी एक ही छन्द में हो सकते हैं, या दो छन्दों को लेकर भी उनका द्विपदीय रूप निर्धारित किया जा सकता है।
5. तेवरी के प्रथम तेवर में एक अथवा दो छन्दों की जो व्यवस्था निर्धारित की जाती है, वह व्यवस्था ही हर तेवर में निहित होकर तेवरी को सम्पूर्णता प्रदान करती है।
6.तेवरी के तेवरों को लाँगुरिया, बारहमासी, मल्हार, रसिया, व्यंग्य आदि शैलियों का समावेश कर रचा जा सकता है। इस शैलियों को विधा समझना ठीक उसी प्रकार है जैसे अतिज्ञानी लोग तेवरी को ग़ज़ल समझते हैं।
हिन्दी ग़ज़ल के कथित पारखी विद्वानों का कहना है कि-“ तेवरी में पहले एक अतुकांत पंक्ति फिर उसी लय में दो-दो पंक्तियों के जोड़े जिनमें दूसरी पंक्ति का अन्त्यानुप्रास से मेल खाता हो, स्थूल रूप से यह ग़ज़ल का रूपाकार है।“ इसी कारण तेवरी ग़ज़ल है।
तेवरी को ग़ज़ल मानने का उपरोक्त आधार अगर सही है तो इसी आधार को लेकर कवित्त की रचना की जाती है। यही आधार पूरी तरह हज़ल में परिलक्षित होता है। तब यह विद्वान कवित्त और हज़ल को ग़ज़ल की श्रेणी में रखने से पूर्व लकवाग्रस्त क्यों हो जाते है? एक सही तथ्य को स्वीकारने में इनका गला क्यों सूख जाता है?
हज़ल तो शिल्प के स्तर पर हू-ब-हू ग़ज़ल की नकल है। इस नकल को ग़ज़ल कहने की हिम्मत जुटाएँ। हिन्दी ग़ज़ल के पुरोधाओं की बात साहित्य जगत में स्वीकार ली जाये तो तेवरीकार उनके समक्ष नतमस्तक होकर तेवरी को ग़ज़ल मानने के लिये तैयार हो जाएँगे।
हम मानते हैं कि तेवरी ग़ज़ल की हमशकल है किन्तु न वह ग़ज़ल की हमनवा है और न हमख्याल। शारीरिक संरचना में तो कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और अंगे्रजों के छक्के छुड़ाने वाली रानी लक्ष्मीबाई समान ही ठहरेंगी। कंस और कृष्ण में भी यही समानता मिलेगी। हिटलर और गांधी में भी कोई अन्तर परिलक्षित नहीं होगा। तब क्या इन्ही शारीरिक समानताओं को आधार मानकर हर अन्तर मिटा देना चाहिए, जिसके आधार पर मनुष्य के चरित्र की विशिष्ट पहचान बनती है।

क्या हज़ल भी ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल है
————————————————————–
जिन विद्वानों के लिए शरीर और चरित्र एक ही चीज़ है] वे तेवरी को ग़ज़ल ही सिद्ध करेंगे, लेकिन हज़ल को ग़ज़ल सिद्ध करते समय उनकी बुद्धि कुंठित क्यों हो जाती है? इस प्रश्न पर आकर उत्तर देने में उनकी जीभ क्यों लड़खड़ती है? अतः पुनः पूरे मलाल के साथ यही सवाल. कि ग़ज़ल की शक़ल की हू-ब-हू नकल *हज़ल’ है, क्या हज़ल भी ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल है
*रमेशराज

Language: Hindi
Tag: लेख
477 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.

You may also like these posts

राना लिधौरी के मलाईदार दोहे
राना लिधौरी के मलाईदार दोहे
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
सुबह सुबह का घूमना
सुबह सुबह का घूमना
जगदीश लववंशी
*🌸बाजार *🌸
*🌸बाजार *🌸
Mahima shukla
दोस्ती।
दोस्ती।
Priya princess panwar
#स्टार्टअप-
#स्टार्टअप-
*प्रणय प्रभात*
*मतलबी दुनिया की प्रीत*
*मतलबी दुनिया की प्रीत*
Abhilesh sribharti अभिलेश श्रीभारती
मुराद अपनी कोई अगर नहीं हो पूरी
मुराद अपनी कोई अगर नहीं हो पूरी
gurudeenverma198
कभी कुछ ऐसे ही लिखा करो जनाब,
कभी कुछ ऐसे ही लिखा करो जनाब,
Dr. Akhilesh Baghel "Akhil"
কেমেৰা
কেমেৰা
Otteri Selvakumar
मैथिली का प्रभाव असम बंगाल और उड़ीसा विद्यापति और ब्रजबुलि
मैथिली का प्रभाव असम बंगाल और उड़ीसा विद्यापति और ब्रजबुलि
श्रीहर्ष आचार्य
" मेरा प्यार "
DrLakshman Jha Parimal
विचार
विचार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
हम बंधन में रहकर भी मुक्ति का आनंद उठा सकते हैं, बस हमें परि
हम बंधन में रहकर भी मुक्ति का आनंद उठा सकते हैं, बस हमें परि
Ravikesh Jha
कवि/लेखक- दुष्यन्त कुमार (सम्पूर्ण साहित्यिक परिचय)
कवि/लेखक- दुष्यन्त कुमार (सम्पूर्ण साहित्यिक परिचय)
Dushyant Kumar
*
*"नरसिंह अवतार"*
Shashi kala vyas
देखो! कहां राम है मेरा
देखो! कहां राम है मेरा
Dr. Ravindra Kumar Sonwane "Rajkan"
ग़ज़ल
ग़ज़ल
अनिल कुमार निश्छल
सर्वप्रथम पिया से रँग लगवाउंगी
सर्वप्रथम पिया से रँग लगवाउंगी
दीपक नील पदम् { Deepak Kumar Srivastava "Neel Padam" }
"भिखारियों की क्वालिटी"
Dr. Kishan tandon kranti
* गीत मनभावन सुनाकर *
* गीत मनभावन सुनाकर *
surenderpal vaidya
मेरा दिल अंदर तक सहम गया..!!
मेरा दिल अंदर तक सहम गया..!!
Ravi Betulwala
* अहंकार*
* अहंकार*
Vaishaligoel
14. Please Open the Door
14. Please Open the Door
Santosh Khanna (world record holder)
दोहा एकादश. . . . . सावन
दोहा एकादश. . . . . सावन
sushil sarna
..........?
..........?
शेखर सिंह
अंबर तारों से भरा, फिर भी काली रात।
अंबर तारों से भरा, फिर भी काली रात।
लक्ष्मी सिंह
जिंदगी की धुप में छाया हो तुम
जिंदगी की धुप में छाया हो तुम
Mamta Rani
वो मेरे बिन बताए सब सुन लेती
वो मेरे बिन बताए सब सुन लेती
Keshav kishor Kumar
चोरों की बस्ती में हल्ला है
चोरों की बस्ती में हल्ला है
श्रीकृष्ण शुक्ल
*मिटा-मिटा लो मिट गया, सदियों का अभिशाप (छह दोहे)*
*मिटा-मिटा लो मिट गया, सदियों का अभिशाप (छह दोहे)*
Ravi Prakash
Loading...