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20 Aug 2019 · 1 min read

अन्ततर्भाव

जाना चाहता हूं. बहुत दूर
इतना दूर कि कोई अपना
न छू सके न देख सके
न सुन सके और न ही
कुछ सुना सके ,कह सके
निभा के देख लिए सब रिश्ते
दिल से दिमाग से
धन से मन से
वचन से कथन से
लेकिन सब के सब निकले स्वार्थी
रंज और तंज से भरे हुए
बोझिल और नीरस
बिल्कुल एकदम खोखले
लोभी क्रोधी मौजी निकचोजी
अहम और वहम से भरे हुए
जाति और धर्म से सने हुए
कर्म परिश्रम से क़ोसो दूर
यथार्थ से परे,पूर्ण कपटी
दिखावे से म़ढे हुए
मोह माया मे फसे हैं
तंग आ गया हूँ
प्रतिदिन की औपचारिकतों से
आर्थिक नुकसान से
अब बस होना चाहता हूँ
पूर्ण आजाद स्वावलंबी
आत्मनिर्भर विस्वासी
निस्वार्थी और सच्चा
विचरण करना चाहता हूँ
विहंग की तरह आकाश मे
स्वतंत्र रहना चाहता हूँ
खुल के हसना चाहता हूँ
रोना चाहता हूँ एकान्त में
जग की चकाचौंध से परे
समा जाना चाहता हूँ
निश्चल झरनों में
बह जाना चाहता हूँ
सरिता के बहते नीर में
विचलित और व्यथित है मन मेरा
शायद कहीं से कोई
ठहराव आ जाए
और टिक जाए
स्थिर शिथिल हो जाए मेरा
भटका और बहका हुआ मन

सुखविंद्र सिंह मनसीरत

Language: Hindi
2 Likes · 372 Views
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