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29 Jul 2019 · 1 min read

सिकुड़ती जिन्दगी

ज्यों ज्यों
बढने लगी
रिश्तों में
सिकुड़न
होते गये दूर
हम
अपनों से

सिकुड़न
जब दूर
होने लगी
चादर में
अदालत तलक
जाने लगे
हम दो

देख कर
सिलवट
बिस्तर की
होता है
सुकुन
सोयी थी
वह भरपूर
रातभर

सिकुड़न
सिलवट की
है कहनी
अजीब
बता देती है
पूरा हाल
जीवन और
जीवनसाथी की

रखो दूर
सिकुड़न को
रिश्तों से दूर
रहें आपस में
सिकुड़न
सिलवटों
को समेटे हुए

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

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