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24 Jul 2019 · 1 min read

बदली

बदली

घर की छत पर
बैठे-बैठे
निहार रहा था
बादलों को
तभी एक सुंदर
बदली आई
मेरे मन को खूब भाई
वो आई और
चली गई
मेरी रूह छली गई
विरह की
कढ़ाई में तली गई
वो बदली
जाने कहाँ
बरसी होगी
कहाँ-कहाँ धरती
तरसी होगी

-विनोद सिल्ला©

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