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18 Jul 2019 · 1 min read

मुक्तक

कभी क़ाबा, कभी काशी, कभी मस्जिद -शिवाला है,
साज़िश है दलालों की कोई सिक्का उछाला है,
मज़दूरों की बस्ती मुझे बस लगती है बेहतर
जहाँ पर है खुदा मेहनत मज़हब ही निवाला है “

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