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8 Jul 2019 · 1 min read

[[[ ग़ज़ल ]]]

[[[ ग़ज़ल ]]]

काफिया — अट
रदीफ — रहे हैं
बह्र — २२१_२१२२_२२१_२१२२

नेता हमारे कर के वादे पलट रहे हैं !
ये तो हमें भी जैसे-तैसे सलट रहे हैं !!

इंसानियत गई मर अब ये न आदमी हैं,,
सच में ये तो बड़े जनता को खटक रहे हैं !!

आपस में ये तो तू तू-मैं मैं करें लड़ाई,,
मौका जहाँ मिला तो हमको पटक रहे हैं !!

नेतागिरी भी इंसानों का गजब नशा है,,
इस देश के भी हिंदू-मुस्लिम झपट रहे हैं !!

मतदान के जरा पहले लोग फाँसते हैं,,
उल्लू बनाके हमको कैसे मटक रहे हैं !!

जनता के माल ले जाते संतरी-व-मंत्री,,
मजदूर तो ये बेचारे हार अथक रहे हैं !!

पैसे उगा के हमसे ही कर वसूलते हैं,,
ये मुफ्त माल सारे अब तो गटक रहे हैं !!

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दिनेश एल० “जैहिंद”
20. 12. 2018

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