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7 Jul 2019 · 1 min read

ग़ज़ल

जल रहीं हसद की आग में ग़रीब बस्तियाँ
पर अमीर क्यों रखे था बंद अपनी खिड़कियाँ

रौनकें थी जिनसे मुस्कुरा रही थी हर कली
अब चमन में आ नहीं रहीं हैं कोई तितलियाँ

रुत नहीं है शबनमी ये धुंध कैसा छा गया
फूल फूल बिखरे हैं गुम हुई हैं शोखियाँ

जिस झरोखे में बिठाया था तुम्हें मेरे सनम
टूट कर वो रह गयी हैं मेरे दिल की खिड़कियाँ

आदमी के शक़्ल में तो घूमते हैं भेंड़िए
अब निकल न पा रही हैं घर से अपने बेटियाँ

भूल कर के प्यार को तो आदमी उगलता जह्र
आज यूँ ज़ुबान में घुल चुकी हैं तल्ख़ियाँ

दर्द उठ रहा है ऐसे पोर पोर दुख रहा
कड़कड़ा रही हैं जिस्म की ये सारी हड्डियाँ

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)

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