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1 May 2019 · 1 min read

ग़जल

“मज़दूर”

सुखों का त्याग कर निर्धन श्रमिक जीवन बिताते हैं।
लिए छाले हथेली पर नयन सपने सजाते हैं।

चला गुरु फावडा भू पर उठाकर शीश पर बोझा
प्रहारों का वसन पहने कर्म अपना निभाते हैं।

लहू श्रम स्वेद का बहता झलकतीं अस्थियाँ इनकी
थपेड़े वक्त के सहकर भूख तन की जगाते हैं।

थके हारे यही मज़दूर शय्या शूल की सोते
सहन कर आपदा दैहिक नहीं पीड़ा जताते हैं।

स्वयं दिन झोंपड़ी में काट विपदा के गुज़ारे हैं
धरोहर मान पुरखों की व्यथा दूजी मिटाते हैं।

बने बुनियाद के प्रस्तर गलाकर देह को अपनी
महल निर्मित किए इतिहास जग में ये रचाते हैं।

इन्हीं के वज्र काँधे पर टिकी धरती समूची है
बनाकर स्वर्ग अवनी को बुझे दीपक जलाते हैं।

स्वरचित
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी, (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

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