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28 Apr 2019 · 1 min read

मुसाफिर

मुसाफिर
चलते चलते सुकून की आस मे ,
मुसाफिर हूं मैं।
ऐ खुदा कब तक इम्तिहान दू ,
मन भटक रहा है।
आँखें नम मानसून की तरह ,
बदन भीग रहा है।
चाहत है बड़ी मंजिल पाने की,
आगे बढ़ रहा है।
नहीं थकुंगा नहीं रुकूँगा,
निरंतर काम कर रहा हूँ।
उचाईयों की चाह में,
संसार के ज्ञान रूबरू हो रहा हूँ।
आखिर मेहनत रंग लाई ,
खुशियां मिल रहा है।
अब नहीं जीवन में गिला सिकवा,
प्रेम पा रहा हूँ।आनंद पा रहा हूं।
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रचनाकार कवि डीजेन्द्र क़ुर्रे “कोहिनूर”
पीपरभवना, बिलाईगढ़, बलौदाबाजार (छ. ग.)
‌8120587822

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