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12 Apr 2019 · 1 min read

" निर्वासित हम " !!

चोका

ढूढें अँखियाँ
ताल तलैया पानी
हुई उदास
फिर वही कहानी
जलधारा हैं
सूखी खुद प्यासी सी
कुँए अकेले
पनिहारिन भागी
बरसे आग
हुलसे तन मन
प्यास कंठ की
विकल सभी जन
समझा मर्म
परहित का सोचा
भरा पात्र है
यदि कोई परोसा
मन में हूक
है चिंहुंकना छोड़ा
घरोंदे छूटे
नहीं शाख बसेरा
नीड़ बने हैं
घर आँगन अब
हैं निर्वासित हम !!

स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास

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