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9 Dec 2018 · 2 min read

इन्तजार

बाबूजी लगातार दरवाजे की चौखट को देख रहे थे

दीपक की लो झपझपा रही थी । सुमन बडी उम्मीद से एकटक बरामदे में खड़े हो कर रास्ते मे आते जाते हर रिक्शा को देख रही थी।

आखिर वह बाबूजी की खाट के पास आ गयी। बाबूजी ने निराश हो कर दरवाजे की तरफ से चेहरा हटा लिया ।

सुमन ने एक लम्बी सांस ली और बाबूजी के मुंह में पानी की चार पांच बूंदे डाल दी ।

सुमन शून्य मे देख रही थी और एक चलचित्र उसकी आँखो के सामने घुम गया :

” बाबूजी याने हमारे पिताजी दयाशंकर जी । सरकारी दफ्तर में बाबू थे । रमादेवी से उनकी शादी हुई । दिनेश भईय्या के बाद बाबूजी को फिर से एक बेटे की चाह जागी । उनका कहना था :

” घर में दो बेटे तो होना ही चाहिए जब दोनों के साथ निकलूं तो गर्व से सीना चौड़ा हो जाऐ ।”

लेकिन इस मेरा याने सुमन का जन्म हो गया । माँ बताती थी :

” इससे बाबूजी काफी निराश हो गये थे ।”

खैर बाबूजी ने दिनेश को पढ़ने लिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुझे सरकारी स्कूल में डाल दिया ।

अब नौकरी के समय भी दिनेश को जब बाहर का मौका मिला तब एक बार फिर बाबूजी हताश से हुए। लेकिन दिनेश ने कहा :

“बाबूजी आप चिन्ता क्यो करते हो सुमन तो है ही ।”

दूसरे शहर से होते हुए दिनेश विदेश निकल गये । बाबूजी को जैसा डर था वैसा ही हुआ और कम्पनी में ही लड़की शादी कर विदेशी हो गया । इसी गम में रमादेवी बेटा बहू का मुंह देखे बिना दुनियाँ से चल बसी ।

बाबूजी ने सुमन को सहारा समझ कर शहर मे ही सुमन की शादी कर दी ।

बाबूजी के शरीर में कुछ हरकत हुई और सुमन का चलचित्र टूट गया ।

सुमन ने बाबूजी की हालत देखते हुये भईय्या को पूरी बातें बताते हुए जल्दी आने का कहा था।

बाबूजी ने गहरी सांस छोड़ते हुए सुमन के सिर पर हाथ रखा और कहा :

” बेटी अब इन्तजार नही होता ।”

घर के बाहर रिश्तेदार दोस्त इकट्ठे हो गये थे । बाबूजी को अग्नि कौन देगा इस पर चर्चा हो रही थी ।

अंतिम यात्रा के पड़ाव में एक तरफ सुमन भारी मन से कंधा दे रही थी।

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

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