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21 Oct 2018 · 1 min read

मुक्तक

गिरगिट-सा रंग बदलते मैंने इंसानो को देखा है,
अपनों को भी छलते मैंने बेईमानों को देखा है,
मानवता शर्मिंदा होती है नित दिन चौराहों पर,
डोली से पहले अर्थी चढ़ते अरमानों को देखा है।

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