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19 Oct 2018 · 1 min read

ग़ज़ल

ज़माने बीत जाते हैं

कभी उल्फ़त निभाने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी मिलने मिलाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी वो दर्द देते हैं कभी नासूर बनते हैं
कभी मरहम लगाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी ऊँची हवेली में मिली दौलत रुलाती है
कभी दौलत कमाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी वोटिंग किसी के नाम पर सत्ता दिलाती है
कभी सत्ता बनाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी चाँदी चढ़े रिश्ते यहाँ किश्तें भुनाते हैं
कभी किश्तें चुकाने में ज़माने बीत जाते हैं।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

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