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26 Sep 2018 · 2 min read

हँसकर मधुभागे कहाँ चली ?

हँसकर मधुभागे कहाँ चली ?

हँसकर मधुभागे कहाँ चली, पगली! आँचल तो देख ज़रा
देख सरकने लगा अभी से, आँचल को तो ढाँक ज़रा।
क्यों इतना उन्माद, ठहर जा, ओ मतवाली! पवन-सखी
यह संसार न सुंदर वन है, अल्हड़ता की तू गठरी
तेरा बचपन लौट रहा क्यों, हाय! लड़कपन ने घेरा
अब तो ले सम्हाल, तनिक दे, यौवन पर अपने पहरा
तू मतवाली, डोल रही, जीवन-पग में घुंघरू जैसे
खेल नहीं, यह जीवन है, तुझको समझाऊँ भी कैसे?
देख आंगुरी छोटी होती, तेरी यही कहानी है
हर पल है संगीत अभी पर सांझ तलक ढल जानी है।

हँस पड़ी वही मधुशाली कविता अंतर-मोहिनि के स्वर में
जैसे हो स्वछंद एक सरिता की धारा हिमवर में।

मैं तो हूँ उन्माद-कली मन की लहरों में खुली खिली
अम्बर ने मुझे खिलाया है धरती की शुचि में हिली-पली
क्यों न मचलती हो सुबह, मैं क्यों न हिलूँ, खेलूँ फिसलूं क्यों पग-बन्धन डाल अभी, मैं क्यों अवगुंठन में छिप लूँ?
यह पीत कंचुकी रेशम की, झिलमिल बदली मेरी चुनरी
यह तारों वाली रात केश, ये जल सरिता मेरी करधनि है।

यह आकुलता मिली मुझे यह सुंदरता की प्रतिकृति है
जहाँ कामना, वहीं कलेवर, मैं ही क्या, ये संसृति है
रस गगरी में रस होगा तो थोड़ा सा वह छलकेगा
अंतर में आमोद भरा वह थोड़ा सा तो झलकेगा
मेरा परिमल मुक्ताभ लहर वो, थमने का जो नाम न ले
यही ज्वार वह दुर्निवार है धीरज से जो काम न ले।
मैं बँध जाऊँ तो ठहरेगी सृष्टि जहाँ की वहीं खड़ी
सारा यह संसार प्रेम से विरत न कुछ रह पाएगा।

इस आकुलता में मेरी छिपा हुआ वह सृष्टि-बीज है
जिसपर यह संसार सदा से टिका हुआ।
मैं उसे ढूंढती जो मेरा सादर सविनय स्वीकार करे
मैं बनी प्रेम की मिट्टी से हूँ, मुझे बरसकर प्यार करे।
यहाँ दिखावा नहीं चलेगा भर-भर ले रस पीना है
स्वयम डूबना है सरिता में जी भरकर उसे डुबाना है।

क्रमशः
(“#जयमालव महाकाव्य से)
©®#मिहिर

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