Comments (3)
20 Jul 2016 05:02 PM
सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने
कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है
बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है
इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये बक्त की साजिश है या फिर बक्त का एहसान है
गर कहोगें दिन को दिन तो लोग जानेगें गुनाह
अब आज के इस दौर में दिखते नहीं इन्सान है
गैर बनकर पेश आते, बक्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है
प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है
20 Jul 2016 12:12 PM
Khayaal umda hai mohtarma agar yahi baher aur bazan me hoN to baat bane
आदरणीया मैम बहुत सुंदर रचना है आपकी।महोदया मेरी रचना “अमर प्रेम (सवैया)” का अवलोकन कर एक वोट देकर सहयोग देने की कृपा करें , धन्यवाद। ।