अमोल की पत्नी बहुत संतोषी प्रवृत्ति की थी। बिलकुल साधारण जीवन-यापन होते हुए भी कभी कोई शिकायत नहीं।
पुरानी यादों के सागर में डूबते-उतराते दृश्य उसकी आँखों के सामने किसी चलचित्र की तरह गुजरने लगे।
अमोल ने पहले नाराजगी के साथ बोला फिर सोचा कि फोन तो मेरे लिए ही होगा नहीं तो माँजी क्यों कहती कि मेरा फोन आया है।
“और सुनाओ क्या हालचाल हैं?”, विष्णु ने अमोल से पूछा “कब आये लखनऊ?, तुम्हारे तो बाल भी सफ़ेद हो गए
अरे हाँ, कैसे पहचान लोगे मेरी आवाज़ फोन पर जब सामने-सामने लोग नहीं समझ पाते हैं
एक तो हाता वैसे ही बंद-बंद और घुटन भरे अँधेरे कमरों वाले होते हैं ऊपर से उसके घर के पास से गुजरने वाली नाली की अप्रिय गंध
अमोल आश्चर्य में भी था और ग्लानि में भी। आश्चर्य इसलिए कि इतने दिन हो गए और अचानक ही विष्णु ने उसे फोन कर दिया और ग्लानि इसलिए कि उसने तो आजतक भी कभी अपने दोस्तों कि खोज-खबर नहीं ली।
फोन आपने मिलाया है तो आप बताएँगे कि आप कौन बोल रहे हैं, मैं क्यों बताऊँ? आपको किससे बात करनी है?
अति सुन्दर l
धन्यवाद आपका आदरणीय 🙏
अमोल सोच रहा था कि कोई माँ इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है
अमोल ने विष्णु की आवाज़ में मित्रता के चिर-परिचित अधिकार से ज्यादा अनुनय जैसा अनुभव किया।
बहुत बढ़िया दीपक 👏🏻👏🏻
बहुत बहुत धन्यवाद आपका, प्रोत्साहित हूँ 🙏
“यह सब क्या है? कहाँ जा रही हो”, अमोल ने शंका प्रकट की
अमोल का नया दोस्त दूर से ही, नम हो आईं आँखों के साथ, उसे मुस्कुराहट, अभिमान एवं सम्मान के साथ देख रहा था।
लाजवाब कहानी ….
धन्यवाद आदरणीय कहानी पढकर अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए 🙏
धन्यवाद आपका आदरणीय
“दोस्त”, उसके होंठ यूँही बुदबुदा उठे
कहानी को पुरष्कृत करने के लिए साहित्यपेडिया का हार्दिक आभार