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संजीवनी गुप्ता जी धन्यवाद 🙏

मुश्किल से मिलता है
फिर से, बिगड़ा हुआ हिसाब-किताब।

टुकड़े-टुकड़े काँच जोड़कर
बनता नहीं दोबारा दर्पण

निकल पड़े बहक कर घर से
लौटे कैसे फिर वो पाँव,
हाय रे बिडम्बना-

कैसे बने लकड़ी फिर से
जो भई कोयला फिर राख़

पत्ते छूट जाएँ तो
दरख़्त देते नहीं छाँव

कुछ तो बह जायेगा जरुर
जब टूटेंगे तटबन्ध।

24 May 2023 05:59 AM

मार्मिक चित्रण।

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