श्रीमान सुमन जी आपने जाति धर्म आदि पर आधारित व्यवस्था को खत्म करने के लिए जिस आरक्षण का सुझाव दिया है उसे आप पूर्व में दिए गए विवरण में ही खारिज कर चुके हैं, और बांध तोड़कर एकता और समाधान की राह समझा गये हैं, तो ऐसे में फिर उसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की आवश्यकता कहां रह जाती है, हां समाज में सौहार्द बनाए रखने के लिए किसी को ऊंच नीच की परिधि से बाहर करना निश्चय ही आवश्यक है, इसके लिए समान शिक्षा,समान अवसर,समान रूप से व्यवहार की आवश्यकता है जो शायद हमने स्वीकार नहीं किया है और उसकी वजह भी राजनीतिक ही ज्यादा है, आज भी लोग बड़े बड़े पदों पर बैठ कर अपने को दबा कुचला और पीड़ित जता कर भावनाओं से खिलवाड़ कर अपना हित साध रहे हैं और हम उनकी सफलता में ही अपना अक्स देख कर संतुष्ट हो जाया करते हैं। उदाहरण के लिए कितने नेता हैं जो सत्ता हासिल करने के बाद अपनी जीवन शैली बदल चुके हैं किन्तु जब उन पर कोई टिप्पणी हो जाती है तो वह चीख चीखकर कहते हैं कि मुझे अपमानित किया गया है और यह यह अपमान सिर्फ मेरा नहीं अपितु उनसे जुड़े हर किसी का है, एवं लोग भी लामबंद होकर उसके छलावे में आ जाते हैं। मेरे तर्कों से असहमति होने पर क्षमा करें,सादर प्रणाम इस आशय के साथ की आपने ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा की है।
हमारे देश में धर्म , संप्रदाय , एवं जातियता की जड़ेंं मजबूती से अस्तित्व में हैं , जिन्हें अंतर्जातीय एवं अन्तर्संप्रदाय विवाह से नष्ट करना अत्यंत दुष्कर है। हमारे देश में धर्म एवं संप्रदाय का अस्तित्व आदिकाल से चला आ रहा है , और हमारे जीवन का एक प्रमुख अंग बन चुका है। अतः आपके विचार का निष्पादन व्यवहारिकता से परे है। जिस देश के समाज में अंतर्जातीय विवाह एवं अंतर्संप्रदाय विवाह को हेयदृष्टि से देखा जाकर घोर विरोध किया जाता है , उस समाज में इस तरह समाज सुधार केवल एक परिकल्पना मात्र सिद्ध होगा।
यह एक कटु सत्य है ।
धन्यवाद !