शिक्षा मनुष्य की सोच में परिवर्तन एवं दिशा प्रदान करती है। मनुष्य के अंतर्निहित ज्ञान का विकास करती है। समस्त मनुष्यों के अंतर्निहित प्रज्ञा शक्ति भिन्न-भिन्न होती है। अतः प्रदत्त ज्ञान को भली-भांति समझने एवं उसकी व्यवहारिकता निर्धारित करने में उनकी प्रज्ञा शक्ति की एक बड़ी भूमिका रहती है।
शिक्षा ज्ञानोपार्जन का साधन है और विद्या ज्ञान प्राप्ति का लक्ष्य है। शिक्षा एवं विद्या एक दूसरे के परिपूरक है। शिक्षण के बिना ज्ञान वर्धन एवं परिमार्जन संभव नहीं है। शिक्षा से प्राप्त ज्ञान का चिंतन प्रज्ञा शक्ति के विकास में सहायक होकर प्रगतिशील सोच को दिशा देता है।
मनुष्य मे निहित संस्कार , अनुवांशिक गुण एवं वातावरण का मनुष्य के मस्तिष्क पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं । जिनसे मनुष्य की सोच का निर्माण एवं प्रज्ञा शक्ति का विकास होता है। जो मनुष्य की प्रतिभा को प्रकट करते हैं।
मनुष्य की प्रतिभा के व्यावहारिक मापदंड बुद्धिलब्धि से परिभाषित होते हैं।
विभिन्न मनुष्यों की बुद्धिलब्धि( intelligence quotient) भिन्न-भिन्न होती है जो विभिन्न कारकों पर निर्भर होती है।
अतः विद्या ग्रहण क्षमता विभिन्न मनुष्यों में भिन्न-भिन्न स्तर पर निर्धारित होती है।
प्राप्त विद्या का सदुपयोग , अनुसंधान एवं नवोन्मेष व्यक्ति विशेष की प्रतिभा पर निर्भर करता है।
जहां तक नेतृत्व करने वालों( Leaders) एवं अनुसरण करने वालों (Followers) का प्रश्न है , यह एक जन्मजात अनुवांशिक गुण है जो मनुष्य में पाया जाता है। यह किसी भी तरह अर्जित नहीं किया सकता है।
धन्यवाद !
शुक्रिया आदरणीय ?❤️
बहुत बढ़िया
शुक्रिया साहब ?❤️
बहुत सुंदर व्याख्यात्मक प्रस्तुति ।
धन्यवाद !
जी शुक्रिया!
बेहद आभार!!??