Comments (4)
28 May 2020 07:48 AM
प्राकृतिक संपदा के दोहन से उत्पन्न जीव-जंतुओं की प्रजातियों के विलुप्त होने की समस्या पर व्यंगपूर्ण प्रस्तुति।
धन्यवाद !
Seema katoch
Author
28 May 2020 08:55 AM
जी, हमारे बच्चे इन रिश्तों को कहां समझ पाएंगे क्योंकि अधिकतर एक या दो बच्चे हैं सबके। वो इन रिश्तों की एहमियत ,इनके आने से को सकून हम लोगों ने महसूस किया था ,जो आनंद हम को आता था ,ये सब धीरे धीरे ख़तम हो रहा । वही कहने की कोशिश की है।
आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहता है sir,,,, शुक्रिया
वृहद परिवार के अनेको सुरों की लय में जीवन के अनगिनत सुरीले गीत लिखे जाते हैं, किस्से ,कहानियाँ होते हैं जो जीवन के उत्तरार्द्ध तक गुनगुनाये जाते हैं और याद रहते हैं ।।हर्ष और उल्लास के साथ खट्टी मीठी नोकझोंक,अथाह प्यार की चाशनी में डांट डपट का तीखा तडका एक मोहक अनुभूति है।
यद्यपि भारत वर्ष तथा समस्त विश्व में जन सँख्या में त्वरित गति से वृद्धि हो रही है, परन्तु मध्यमवर्गीय बुद्धि जीवी परिवारों में एक ही बच्चे के चलन से न चाचा न बुआ न मौसी ।एकल परिवारों की नियति में खाली घोसले सा अवसाद ही रह जाता है जब एकमात्र सन्तान भी अध्ययन और उसके बाद आजीविका हेतु दूर चली जाती है और अकसर विदेश भी।
पर मित्रों का दायरा बढ़ा कर उस कमी को आज का समाज पूरा करने का प्रयास कर रहा, जिसमें सोशल मीडिया भी सहायक है
अत्यंत सामयिक सुन्दर व समीचीन भावनाओं से युक्त कविता हेतु साधुवाद ।
उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया जी