वर्तमान में शिक्षण एक व्यवसाय का रूप ले चुका है।
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ज्ञानवर्धन के स्थान पर धनोपार्जन का माध्यम प्रदान करना रह गया है। शिक्षार्थी भी डिग्री हासिल करके अच्छी से अच्छी नौकरी प्राप्त करना चाहते। उनका उच्च शिक्षा प्राप्त करने का लक्ष्य भी मोटी तनख्वाह वाली नौकरी प्राप्त करना ही है। समाज में भी अभिभावकों की यही सोच एक भेड़ चाल वाली सोच का निर्माण करती है। जिस कारण से वे शिक्षा क्षेत्र में होने वाली लूट का खुलकर विरोध प्रकट नहीं कर पाते। अतः उनका शिक्षा के नाम पर शोषण होता रहता है। व्यक्तिगत स्वार्थपरता के चलते अभिभावक संगठित होकर इस प्रकार की लूट के खिलाफ आवाज उठा नहीं पाते।
जिसका लाभ इन संस्थाओं को मिलता है। यह एक कटु सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता है।
दरअसल यह एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधन में एकाधिकार का वर्चस्व है। उनमें जनहित की भावना नहीं है। केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए वे नियमों में परिवर्तन करते रहते हैं। उन्हें भली-भांति पता है कि अभिभावकों के समक्ष विकल्प उपलब्ध नहीं है और उनको उनके समस्त प्रावधानों को मानने के सिवा कोई चारा नहीं है। अभिभावकों में भी व्यक्तिगत चिंता सर्वोपरि है और उनमें समूह चिंता का अभाव होता है।
अतः उन्हें संगठित करना एक कठिन कार्य है।
केवल चर्चाओं और वार्ताओं से इस समस्या का हल नहीं होगा। हमें वास्तविकता के धरातल पर लोगों की सोच में परिवर्तन लाने का प्रयास करना पड़ेगा। तभी हमें इस अभियान में सफलता मिल सकती है।
वर्तमान में शिक्षण एक व्यवसाय का रूप ले चुका है।
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ज्ञानवर्धन के स्थान पर धनोपार्जन का माध्यम प्रदान करना रह गया है। शिक्षार्थी भी डिग्री हासिल करके अच्छी से अच्छी नौकरी प्राप्त करना चाहते। उनका उच्च शिक्षा प्राप्त करने का लक्ष्य भी मोटी तनख्वाह वाली नौकरी प्राप्त करना ही है। समाज में भी अभिभावकों की यही सोच एक भेड़ चाल वाली सोच का निर्माण करती है। जिस कारण से वे शिक्षा क्षेत्र में होने वाली लूट का खुलकर विरोध प्रकट नहीं कर पाते। अतः उनका शिक्षा के नाम पर शोषण होता रहता है। व्यक्तिगत स्वार्थपरता के चलते अभिभावक संगठित होकर इस प्रकार की लूट के खिलाफ आवाज उठा नहीं पाते।
जिसका लाभ इन संस्थाओं को मिलता है। यह एक कटु सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता है।
धन्यवाद !
सही कहा आपने यह एक कटु सत्य है परंतु इन सबके खिलाफ आवाज उठाई जा सकती है कि शिक्षा के नाम पर शोषण न किया जाए ।
दरअसल यह एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधन में एकाधिकार का वर्चस्व है। उनमें जनहित की भावना नहीं है। केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए वे नियमों में परिवर्तन करते रहते हैं। उन्हें भली-भांति पता है कि अभिभावकों के समक्ष विकल्प उपलब्ध नहीं है और उनको उनके समस्त प्रावधानों को मानने के सिवा कोई चारा नहीं है। अभिभावकों में भी व्यक्तिगत चिंता सर्वोपरि है और उनमें समूह चिंता का अभाव होता है।
अतः उन्हें संगठित करना एक कठिन कार्य है।
केवल चर्चाओं और वार्ताओं से इस समस्या का हल नहीं होगा। हमें वास्तविकता के धरातल पर लोगों की सोच में परिवर्तन लाने का प्रयास करना पड़ेगा। तभी हमें इस अभियान में सफलता मिल सकती है।
धन्यवाद !