असंवेदनशील में भी संवेदना पैदा करना ही अपने आप में अलौकिक कार्य है। लक्ष्य अति उत्तम और उद्देश्य सार्थक है।प्रयत्न जारी रहे।असीम शुभकामनाएं आपको।जय हो आपकी
जी,मेरा निजी मत विकास के दो पहिये में एक कर्तव्य का तो दूसरा संवेन्दना का होना चाहिए
मनुष्य में संवेदनशीलता अंतर्निहित संस्कारों से आती है। आधुनिक समाज में संस्कार विहीनता ही असंवेदनशीलता को जन्म देती है। जिसके फलस्वरूप मनुष्य में मानवीय गुणों का अभाव होता है। उसमें हिंसा ,द्वेष , लोलुपता , स्वार्थपरता , अत्याचार, कपटपूर्ण व्यवहार, इत्यादि नकारात्मक गुणों का विकास होता है। आधुनिक समाज में इस प्रकार के नकारात्मक तत्वों की अधिकता के कारण मानवता का अभाव है। दरअसल इसके लिए सामाजिक असमानता एवं वर्ग व्यवस्था भी इसके मुख्य कारक है। समाज का उच्च वर्ग निम्न वर्ग की भावनाओं एवं वेदनाओं के प्रति असंवेदनशील है। राजनीतिज्ञ भी अपने राजनैतिक स्वार्थ हेतु गरीबों की भावना से खेल कर उनकी समस्याओं प्रति संवेदनशील होने का नाटक करते रहते हैं। समाज का एक प्रबुद्ध वर्ग एवं मीडिया भी इस प्रकार संवेदनशील होने का नाटक विभिन्न चर्चाएं प्रायोजित कर करते रहते हैं।
अतः हमें वास्तविकता के धरातल पर इस समस्या का समाधान खोजना होगा।हमें आने वाली पीढ़ी में संस्कारों का पोषण करना होगा तभी हम इस मानवता के ह्रास को रोकने में सफल हो सकेंगे।
धन्यवाद !
हमारे ज्ञान सागर में संवेदना के आयामों को परिभाषित करते हुए उसे मानव मन की गहराई और सच्चाई के साथ आंका गया है। वर्तमान समाज के तेजी से बदलते हुए परिदृश्य में संवेदनाओं का शून्य होना हमारे मानवीय मूल्यों के तेजी से होते ह्रास को दिखाता है। असल में मानवीय संवेदनाओं का शून्य होना इंसान के विकास और शून्य सोच की अंतिम रेखा माना जाता है। इन दिनों बढ़ते हुए औद्योगीकरण और बाजार की प्रतिस्पर्धा ने मानवीय संवेदनाओं को सचमुच मृतप्राय कर दिया है। समाज में अक्सर होने वाली घटनाएं भारतीय समाज के समूचे स्वरूप को किस तरह से परिलक्षित कर रही हैं, वह कल्पना से परे है। समाज में लगातार कम हो रहा आपसी भाईचारा कहीं न कहीं जातीयता और क्षेत्रवाद के नए चेहरे को दिखा कर भयभीत कर रहा है। खासतौर पर समाज में वर्चस्वशाली ताकतों का उभार सौहार्द के हालात को सीमित कर रहा है। इसमें सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव मानवीय संवेदनाओं पर पड़ रहा है।
असंवेदशीलता समाज की भर्त्सना कितना भी कर लीजिए पर अमानवीयता कभी पीछा नहीं छोड़ेगी। बहुत सही प्रकाश डाला है आपने शुक्ला जी।
समाजिक परिवर्तन के संदर्भ में ‘कभी नहीं ‘ शब्द संयोजन का कोई अर्थ नही है ।हमनें इसी लेखन और जन चेतना को आधार बना कर सती प्रथा जैसी ज़लील बीमारियों से मुक्तिबोध के पथ ओर बढ़ चले थे। बस आवश्यकता है आप हम जैसे खाकसारो की ।
अति सुन्दर लेखनी आपकी??
Thanks ummey
सामाजिक ताने-बाने से सुसज्जित लेख।
Ji shubhu
Vr nice sir